पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८०
मतिराम-ग्रंथावली

१८० मतिराम-ग्रंथावली ___(२) उद्धवजी प्रेम-विह्वला, विरह-विधुरा गोपियों को समझाते हैं कि तुम योग-मार्ग में प्रवृत्त हो जाओ। इससे तुमको भविष्य में कृष्णचंद्र की अवश्य प्राप्ति होगी। गोपियाँ एक प्रकार से उद्धवजी का परिहास करती हुई कहती हैं कि आपके आज्ञापालन की तो तब आवश्यकता थी, जब हमारा कृष्णचंद से वियोग होता। उनके प्रेम में तो हमारी तन्मयता इस हद तक पहुँच गई कि हमें सर्वत्र ही सदा उनके दर्शन का सुख सुलभ हो रहा है । फिर हमारे लिये योग-साधन की क्या आवश्यकता है ? इसलिये हम ऐसे सुखद वियोग का त्याग करें ? मतिराम और देव दोनो ही कवियों ने इस विषय पर रचना की है । हम दोनो कवियों की उक्तियाँ विना टीका-टिप्पणी के उद्धृत करते हैं, और सहृदय पाठकों की रुचि पर इस बात का भार छोड़ते हैं कि किसकी उक्ति विशेष चमत्कारिणी है- "जो न जी मैं प्रेम, तब कीजै ब्रत-नेम, जब कंज-मुख भुलै, तब संजम बिसेखिए; आस नहीं पी की, तब आसन ही बाँधियत, सासन कै सासन को मुंदि पति पेखिए । नख ते सिखा लौं सब प्रेममई बाम भई, बाहिर लौं भीतर न दूजो 'देव' देखिए; जोग करि मिलें, जो बियोग होय बालम जु, ह्याँ न हरि होयें, तब ध्यान धरि देखिए।" (देव) "निसि-दिन स्रोनन पियूष सो पियत रहैं, छाय रह्यौ नाद बाँसुरी के सुर-ग्राम को; तरनि-तनूजा-तीर, बन - कुंज, बीथिनि मैं, जहाँ-तहाँ देखति है रूप छबि-धाम को। 'कबि मतिराम' होत हाँतो ना हिए ते नैक, सुख प्रेम-गात को परस अभिराम को;