फूलों के करनफूल शुक्लाभिसारिका के लिये कैसे उपयोगी हैं? फिर 'कार्तिक की रजनी' में ताज़े फूल कहाँ से आए? वसंत की चीज़ शरद् में कहाँ से आई? शुक्लाभिसारिका के साथ भौंरों की भीड़ का होना भी अभिसार का साधक न होकर बाधक ही होगा। काले भौरों से शुक्लाभिसारिका को अपने को छिपाने के उद्योग में बड़ा ही संकट उपस्थित हो गया है। माना कि भौंरों का होना पद्मिनी नायिका का बोध कराता है; पर इस स्थान पर उसका उल्लेख शुक्लाभिसारिका के लिये हितकर नहीं है। दासजी ने भौंरोंवाला भाव भी मतिराम से ही लिया है। यथा—
"पीछे-पीछे आवति अँधियारी-सी भँवर-भीर,
आगे-आगे फैलत उज्यारी मुख-चंद की;"
पर वहाँ अभिसार गणिका का है, जिसे अपने छिपाने की उतनी आवश्यकता भी नहीं। अँधियाला और उजियाला पास ही कैसा मालूम पड़ता है। यह भी मतिराम ने दिखलाया है। आगे मुख-चंद्र की उज्ज्वलता है, तो पीछे भ्रमर-मंडली-कृत घनघोर तिमिर। इस विषमता को धन्य है!
मतिराम के मर्म को यथावत् न समझकर उनका अनुकरण करने में दासजी चूक गए। मतिराम का छंद दास के छंद से कहीं अच्छा है।
(२) घाँघरे झीन सों, सारी महीन सों पीन नितंबन-भार उठे सचि;
बास-सुबास, सिंगार-सिगारनि बोझनि ऊपर बोझ उठे मचि।
स्वेद चले मुख-चंद ते च्वै, डग द्वैक धरै महि फूलन सों पचि;
(दास)
"चरन धरै न भूमि, बिहरै तहाँई, जहाँ
फूले-फूले फूलन बिछायो परजंक है;