पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१९०

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मतिराम-ग्रंथावली

.. १८६ मतिराम-ग्रंथावली मतिराम और तोष मतिराम और तोष के भावों में भी कहीं-कहीं सादृश्य दिखलाई पड़ता है। तोषजी के 'सुधानिधि'-ग्रंथ में से संकलित करके दो-एक उदाहरण दिए जाते हैं- (१) “यों 'मतिराम' भयो हिय मैं सुख बाल के बालम सों दृग जोरे; ज्यों पट मैं अति ही चटकीलो चढ़े रँग तीसरी बार के बोरे।" (मतिराम) "करि जाय बड़ाई, तिती करियो, तब आय सुअंग मैं रंग मढ़े; बिन ढंग भटू, पट हू मैं जथा बिनु तीसरे रंग ना रंग चढे ।" (तोष) अंतिम पद ही दोनो उक्तियों की जान है। मतिरामजी का उक्त पद तोष के वैसे ही पद से कहीं अच्छा बन पड़ा है, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं। (२) 'कबि मतिराम' होत हाँतो ना हिए ते नैक, ___ सुख प्रेमगात को परस अभिराम को; ऊधो, तुम कहत, बियोग तजि जोग करौ, जोग तब करें, जो बियोग होय स्याम को।" (मतिराम) "तोष' कबौ तन न्यारोई होत नहीं, ते कहूँ अब जाय सके जू; साँचो सँजोग बियोग ही मैं, हम ऊधो, विभूति न लाय सके जू।" (तोष) तन्मयता की मात्रा मतिराम की उक्ति में विशेष है। गोपियाँ वियोग का अनुभव ही नहीं कर रही हैं, उन्हें तो संयोग-ही-संयोग दिखलाई पड़ता है। तोषजी के छंद में गोपियाँ वियोगावस्था को भूलती नहीं, पर उसे कारण-विशेष से संयोग से अच्छा समझती हैं। एक में संयोग-वियोग में कोई भेद नहीं रह जाता है, पर दूसरे में