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समीक्षा
भेद मौजूद रहते भी वियोग स्वीकार किया जाता है। दोनो ही उक्तियों में उद्धवजी का योग-उपदेश अस्वीकृत होता है।
(३) "जा दिन ते चलिबे की चरचा चलाई तुम,
ता दिन ते वाके पियराई तन छाई है;
कहै 'मतिराम' छोड़े भूषन-बसन, पान,
सखिन सों खेलनि-हँसनि बिसराई है।
आई ऋतु सुरभि, सुहाई प्रीति वाके चित्त,
ऐसे मैं चलौ, तौ लाल, रावरी बड़ाई है।
सोवति न रैन-दिन, रोवति रहति बाल,
(मतिराम)
"पीतम औधि गए बदि कै, जिय मैं तिय ता पर धीर न ल्याई;
रोज-हि-रोज सरोज-मुखी, कहि 'तोष', रहै करुना-रस छाई।
सोच-भरी क्यों रहै, सब बूझति सासु परोसिनि सौंह दिवाई;
(तोष)
पति के परदेश जाने का इरादा करने तथा जा चुकने पर नायिका की जो दशा हुई है, वही क्रम से मतिराम और तोष*[१] के छंदों में
- ↑ *हिंदी-साहित्य के इतिहास में 'तोष' और 'तोषनिधि' एक ही कवि माने गए हैं, पर हमारी राय में 'तोष' और तोषनिधि' दो भिन्न-भिन्न कवि हैं। तोषनिधि' का बनाया महाभारत सार-नामक एक ग्रंथ 'रेहुआ' ज़िला सीतापुर-निवासी पिनाकी मिश्र के पास था। उनमें के बहुत-से छंद उन्होंने हमें लिखवा दिए हैं। उन छंदों में किसी-किसी में बजाय 'तोषनिधि' के 'मिश्रजू' सुकवि आया है, पिनाकीजी का कहना था कि हम कालपी में स्वयं एक खंडहर की दीवारें देख आए हैं, जिसे लोग तोषनिधि के मकान की दीवारें कहते हैं। 'तोष' कवि शुक्ल थे। सुधा-निधि-ग्रंथ में उन्होंने अपते नाम का प्रयोग ३४१ बार किया है, मगर