पड़े हैं, पर प्रतिशत इनका औसत बहुत ही कम है। इसके अतिरिक्त इनके छंदों में मुख्य भाव को पुष्ट करनेवाली सामग्री कम और भर्ती के पदों का बाहुल्य रहता है। मतिराम की कविता ठीक इसके विपरीत है। उनके उत्तम छंदों का प्रतिशत औसत बहुत अधिक है, और मुख्य भाव को पुष्ट करने की सामग्री की तो यह अवस्था है कि पद-पद का प्रयोग खूब सोच-समझकर मुख्यार्थपरिपोषक ही होता है। व्यर्थ का पद ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त मतिरामजी की कविता में मधुरता की भी विशेषता है। रघुनाथजी ने अलंकारों के उदाहरण अवश्य ही बहुत साफ़ दिए हैं। ऐसी दशा में मतिरामजी रघनाथजी से कहीं अच्छे कवि हैं। आइए, दोनो कवियों के कुछ छंदों की तुलना करें—
(१) "सत्ता के सपूत भाऊ, तेरे दिए हलकनि
बरनी उॅंचाई कबिराजन की मति मैं;
मधुकर-कुल करिनीन के कपोलन ते
(मतिराम)
"छिन मैं महल बिसकरमै तैयार कीन्हो,
कहै 'रघुनाथ', कैयो जोजन के घेरे के;
अति ही बिलंद, जहाँ चंद में ते अमी चारु
(रघुनाथ)
दोनो छंदों का भाव बिलकुल एक ही है। हथिनियां और महल दोनो ही इतने ऊँचे हैं कि चंद्रमा उनसे बहुत निकट रह जाता है। रघनाथजी ने मतिरामजी का भाव लिया है। हमारी राय में 'चूसने' से 'पीने' का प्रयोग अच्छा है। हथिनियों के मद-मंडित कपोलों से आकृष्ट मधुकरों का उतनी उँचाई तक जाना तो ठीक है, पर तीतर-