पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/१९२

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१८८ मतिराम-ग्रंथावली Tara वर्णित है। मतिराम का वर्णन स्वकीया और तोष का परकीया का है। हमारी राय में मतिराम का छंद हर तरह से तोष के छंद से अच्छा है । सहृदय पाठक इसका स्वयं निर्णय कर लें। मतिराम और रघुनाथ मतिराम के पूर्ववर्ती कई कवियों से उनकी कविता की तुलना पाठकों ने पढ़ी है। उनके परवर्ती कवियों की कविता भी भाव-सादृश्य से खाली नहीं है। रघुनाथजी का रसिकमोहन एक परम प्रसिद्ध अलंकार-शास्त्र-संबंधी ग्रंथ है। इसके अनेकानेक छंदों में मतिराम के भावों की झलक है । रघुनाथजी के कोई-कोई छंद बड़े ही अनूठे बन एक बार भी 'तोषनिधि' का प्रयोग नहीं किया । 'तोषनिधि' के नाम से जो छंद हैं, उनकी और 'तोष' के नामवाले छंदों की भाषा भी एक तरह की नहीं है। नवीन कवि और शिवसिंहजी ने भी तोष को तोष- निधि से पृथक् माना है। इन्हीं सब कारणों से हमारा मत यह है कि तोष सरयूपारीण ब्राह्मण शुक्ल थे, तथा 'तोषिनिधि' कान्यकुब्ज ब्राह्मण मिश्र । 'तोष सिंगरोर और तोषनिधि' कालपी के रहनेवाले थे। तोषनिधि का एक छंद नीचे दिया जाता है- "सक जो न माँगि लेतो कुंडल - कवच, पुनि चक्र जो न लीलती धरनि रथ · धारतो; कुंती जो न सरन समेटि लेती, द्विजराज- ___ साप जो न होतो, सल्य सारथी निबाहतो। 'तोषनिधि' जो पै प्रभु पीत पटवारो बनि सारथीपने को कछु कारज न सारतो; तौ तौ बीर करन प्रतापी रबिनंदन सु. पांडु-सुत-सेना को चबेना करि डारतो।" (तोषनिधि)