(दक्षिण) में रावराजा भोज के अपूर्व वीरत्व का स्मरण कराता है।
इन्होंने भी अकबर से कई माके की शर्ते करवाई थीं। यह बड़े ही
साहसी और दृढ़-चित्त थे । अकबर की एक परम प्रिय हिंदू-बेगम के
मर जाने पर बादशाह का हुक्म हुआ कि सब लोग शोक प्रकट करने
के लिये दाढ़ी-मूछ मुड़ा डालें । उस समय दिल्ली में अनेकानेक हिंदू-
नरेश उपस्थित थे, पर किसी को भी साहस न हुआ कि बादशाह की
इस अनुचित आज्ञा का विरोध करें। सभी ने मूछ-दाढ़ी मुड़ा डाली।
राव राजा भोज को यह बात बहुत आपत्ति-जनक जान पड़ी। उन्होंने
दाढ़ी-मूछ मुड़ाने से साफ़ इनकार कर दिया। कहते हैं, यह खबर
सुनकर अकबर बहुत ही अप्रसन्न हुआ, परंतु भोजजी के विरुद्ध कोई
काररवाई न की। इस घटना का अवलंब लेकर मतिरामजी ने
'ललितललाम' में दो बड़े ही ओज-पूर्ण छंद लिखे हैं।
रावराजा भोज ने मूछे नहीं मुड़ाई थीं, उनके मुख पर काली-
काली मूछे विराजमान थीं, किंतु मुख-मंडल क्रोध से रक्त वर्ण हो
रहा था । इधर और नृपतियों के मुख-मंडल मुच्छ-विहीन थे, इसलिये
मूछों की स्याही का चेहरे पर पता न था। रावराजा के मुख पर
स्याह मूछे रहते हुए भी उनके चेहरे पर लाली देखकर और राजाओं
के चेहरे, जो मूछे मुड़ी होने के कारण स्याही से हीन थे, श्याम-रंग
हो गए, अर्थात् उन पर अपमान और लज्जा की स्याही दौड़ आई।
स्वयं मतिरामजी के शब्दों में-
"जेते ऐंडदार दरबार-सरदार, सब-
ऊपर प्रताप दिल्लीपति को अभंग भो;
'मतिराम' कहै, करवार के कसैया केते,
गाड़र-से मूड़े, जग-हाँसी को प्रसंग भो।
सुरजन-सुत रज-लाज - रखवारो एक
भोज ही तें साह को हुकुम-पग पंग भो;
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मतिराम-ग्रंथावली