सुरजनजी के विषय में जो कुछ इतिहास कहता है, प्रायः वही कविवर मतिरामजी ने अपने ढंग से कहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि मतिराम-कृत सुरजन-प्रशंसा कोरी प्रशंसा ही न थी, वरन् रावराजा सुरजनजी उस प्रशंसा के पूर्णतया उपयुक्त पात्र थे। मतिरामजी कहते हैं—
"एक धर्म-गृह-खंभ, जंभ-रिपु-रूप अवनि पर;
एक बुद्धि - गंभीर, धीर, बीराधिबीरबर।
एक ओज - अवतार, सकल सरनागत-रक्षक;
एक, जासु करवाल सकल खल-कुल कहँ तक्षक।"
"मतिराम' एक दातानि-मनि जग जस अमल प्रगट्टियउ;
चहवान - बंस - अवतंस इमि एक राव सुरजन भयउ।"
युद्ध में अकबर बादशाह के दाँत खट्टे करनेवाला, गोंडवाने का विजेता यदि 'ओज-अवतार' कहा जाय, तो बड़ी भारी अतिशयोक्ति नहीं ठहरती। अकबर को वश में पाकर भी उसके साथ वीरोचित बर्ताव, संधि की शर्तों में प्राप्त आत्मसम्मान और धर्म-प्रेम तथा काशी-शासन में न्याय के सत्कार के कारण सुरजनजी को 'धर्म-गृह-खंभ', 'बुद्धि-गंभीर' आदि विशेषणों का उपयुक्त पात्र मानना पड़ेगा। उनके लिये मतिरामजी का यह पद समुचित ही है—
"दुरजन-बधू-उरजन को सिंगार-हर
ऐसो जस गावै सुर-जन सुरजन को।"
भोज
रावराजा सुरजन की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र भोजजी बूंदी के सिंहासन पर बैठे। इनका शासन-काल सं० १६४२-१६६४ है। यह बड़े ही वीर पुरुष थे। चाँद सुलतान का दर्प-दलन करने के उपलक्ष्य में बादशाह अकबर का बनवाया ‘भोज-बुर्ज' आज भी अहमदनगर