स्फुट रचना
व्रज-भाषा-कविता का एक बहुत बड़ा अंश फुटकर कवितामय है। फुटकर कविता से यह अभिप्राय है कि प्रत्येक छंद अपने में ही किसी भाव-विशेष को अभिव्यक्त करता है। ऊपर-नीचे के अन्य छंदों के सिलसिले के साथ भाव प्रकट करने की आवश्यकता फुटकर कविता के लिये नहीं है। संस्कृत-साहित्य में ऐसे फुटकर छंदों को मुक्तक कहते हैं। आर्यासप्तशती में मुक्तकों का अच्छा संग्रह है। हिंदी साहित्य में कविवर बिहारीलाल की सतसई भी ऐसा ही ग्रंथ है। व्रज भाषा के कवियों ने अपने मुक्तकों को प्रकाशित करने का एक और ढंग खोज रक्खा है; वह यह है। काव्यशास्त्र में अलंकार अथवा नायिका भेद के विविध रूपों के सूचक लक्षण हैं। व्रज-भाषा के कवि लोग इन लक्षणों को सामने रखकर उन्हीं के अनुरूप अपने मुक्तक उदाहरण में दे दिया करते थे। इससे काव्यशास्त्र के लक्षण-लक्ष्य ग्रंथों का भी निर्माण हो जाता था, और उसी में मुक्तक भी अच्छे ढंग से संगृहीत हो जाते थे। इस प्रकार अलंकार और नायिका भेद से संबंध रखनेवाले ग्रंथ व्रज-भाषा काव्य में बहुत अधिक बन गए। इस रीति से जिन मुक्तकों का निर्माण हुआ है, उनमें कला-नैपुण्य और सूक्ष्मदर्शिता का अच्छा परिचय है। फिर भी लक्षणों से बँधे रहने के कारण कहीं-कहीं उदाहरणों में कवि-प्रतिभा के पूर्ण प्रकाश में रुकावट भी पड़ी है। ऐसे ग्रंथों में लक्षण तो अधिकतर दोहा छंद में दिए गए हैं, और उदाहरण कवित्त, सवैया, दोहा एवं छप्पय छंदों में। अन्य छंदों का भी प्रयोग हुआ है, परंतु बहुत कम।
सदृश भाव
कवियों में परंपरा से यह चाल पाई जाती है कि परवर्ती कवि