में फूलों का वर्णन है। प्रत्येक दोहे में एक फल का कथन है। इनमें कवि की प्रतिभा का विशेष चमत्कार नहीं दिखलाई पड़ता। फिर भी वर्णन-शैली और शब्द-माधुर्य आदि सभी गुणों की दृष्टि से इसके दोहे मतिराम की अन्य रचनाओं के समान ही हैं। उक्ति-चमत्कार में जो कमी दिखलाई पड़ती है, वह इस अनुमान को पुष्ट करती है कि यह पुस्तक कवि की प्रथम रचना है। दिल्लीश्वर जहाँगीर की आज्ञा से आगरा-नगर में मतिरामजी ने इस पुस्तक को बनाया था। फूल-मंजरी के अंतिम दोहे में यह बात स्पष्ट दी हुई है—
"हुकुम पाय जहँगीर को नगर आगरे धाम—
फूलन की माला करी मति सों 'कबि मतिराम'।"
हमारा विचार है कि फूल-मंजरी में जैसी कविता पाई जाती है, उसे ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक को उस समय की बनी मानना चाहिए, जब कवि की अवस्था १८ वर्ष के लगभग थी। आगरे-नगर में किसी विशेष उत्सव के अवसर पर ही इस ग्रंथ के निर्माण की विशेष संभावना समझ पड़ती है । कवि के अन्य ग्रंथों के रचना-काल एवं अवस्था तथा कई ऐतिहासिक परिस्थितियों को लक्ष्य में रखते हुए हमारा अनुमान है कि सम्राट जहाँगीर के शासन-काल के १५ वर्ष समाप्त हो जाने के बाद १६वें वर्ष के प्रारंभ में बड़ी धूमधाम के साथ जो 'नौरोज़' का उत्सव मनाया गया था, उसी समय मतिरामजी ने भी पुस्तक-रचना-रूप में अपनी भाग्य-परीक्षा प्रारंभ कर दी थी। स्वर्गीय मुंशी देवीप्रसादजी द्वारा अनुवादित 'जहाँगीरनामा' के पृष्ठ ४६४ और ४६५ पर इस उत्सव का वर्णन इस प्रकार हुआ है—
"चंद्रवार २७ रबीउल आसिर सन् १०३० हिजरी (चैत्र-बदी १४) को सूर्य मेष में आया। सोलहवाँ वर्ष बादशाह के राज्याभिषेक में लगा। बादशाह ने शुभ घड़ी, शुभ मुहूर्त में आगरे के राजसिंहासन पर विराजमान होकर शाहजादे शहरयार का मनस ८ हजारी ४०००