पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२३०

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- mygust २२६ मतिराम-ग्रंथावली ग्यानचंद के गुन घने गर्न - भने गुनवंत ; बारिधि के मुक्तान को कौने पायौ अंत ? तदपि यथामति सों कह्यो सब्द-अर्थ अभिराम; अलंकार-पंचासिका रची रुचिर मतिराम । संसकिरत को अर्थ लै भाषा सुद्ध बिचारि ; उदाहरन क्रम ए किए, लीजो सुकबि सुधारि । मानि लेत जहँ एकहू बहु प्रकार बहु लोग ; उल्लेखा तासों कहत बड़े बड़ाई - जोग । उत्तर तपत तेज तपत उदोतचंद , ताको नंद ग्यानचंद मूरति मनोज है ; कबि 'मतिराम' नव निधिन-निधान, जाकौ . बिबिध बिधान जोग बिलसत रोज है । जैसो जो चहत ताहि वैसोई दिखाई देत , हेत हक परत न देखो करि खोज है; बैरी कहैं बाडव, बिड़ौजा कहैं बड़े जन , मामा कहैं भामिनी, भिखारी कहैं भोज है। जहँ अनेकधा बरनिए एक बस्तु निरधार; उल्लेखा दूजौ कहै अलंकार मति - सार । साहस को सागर, सुमेरु सरदारन को , ___समर को सदन, मदन बनितान कौं; कबि ‘मतिराम' वह देव-द्विज दीनन कौं , कंचन बरस अस महिप पुरानि कौं। गंजन गनीमन कों, रंजन गुनी मन को , दान देनहार जग षोडस बिधान कौं ; ग्यानिन को गुरु ग्यानचंद्र चंद्रबंसिन कौं , बासौ सुभटन को, सुटीको हिंदुआन कौं । manna -