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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२३०

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मतिराम-ग्रंथावली

ग्यानचंद के गुन घने गनै-भनै गुनवंत;
बारिधि के मुक्तान को कौने पायौ अंत?
तदपि यथामति सों कह्यो सब्द-अर्थ अभिराम;
अलंकार-पंचासिका रची रुचिर मतिराम।
संसकिरत कौ अर्थ लै भाषा सुद्ध बिचारि;
उदाहरन कम ए किए, लीजो सुकबि सुधारि।
मानि लेत जहँ एकहू बहु प्रकार बहु लोग;
उल्लेखा तासों कहत बड़े बड़ाई-जोग।
उत्तर तपत तेज तपत उदोतचंद,
ताको नंद ग्यानचंद मूरति मनोज है;
कबि 'मतिराम' नव निधिन-निधान, जाकौ
बिबिध बिधान जोग बिलसत रोज है।
जैसो जो चहत ताहि वैसोई दिखाई देत,
हेत हूक परत न देखो करि खोज है;
बैरी कहैं बाडव, बिड़ौजा कहैं बड़े जन,
मामा कहैं भामिनी, भिखारी कहैं भोज है।
जहँ अनेकधा बरनिए एक बस्तु निरधार;
उल्लेखा दूजौ कहै अलंकार मति-सार।
साहस को सागर, सुमेरु सरदारन को,
समर को सदन, मदन बनितान कौं;
कबि 'मतिराम' वह देव-द्विज दीनन कौं,
कंचन बरस अस महिप पुरानि कौं।
गंजन गनीमन कों, रंजन गुनी मन को,
दान देनहार जग षोड़स बिधान कौं;
ग्यानिन कौ गुरु ग्यानचंद्र चंद्रबंसिन कौं,
बासौ सुभटन को, सुटीको हिंदुआन कौं।