समीक्षा २३९ A की अवस्था के बीच में ठहरती है। हमारी राय में रसराज कवि की इस अवस्था में नहीं बना। (३) कविजन प्रायः अपने प्रथम ग्रंथ में अपने गुरु की वंदना करते हैं । बाद के ग्रंथों में उसका उतना विचार नहीं रहता । मति- राम ने रसराज के आरंभ में "श्रीगुरुचरण मनायकै" तब गणपति का ध्यान किया है। इसी प्रकार प्रथम ग्रंथ में ही अपने सहयोगी कवियों को संबोधन करके क्षमा इत्यादि मांगी जाती है । आजकल भी जब कोई नवीन लेखक साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण होता है, तो वह साहित्य-सेवियों की सहानुभूति आकर्षित करने को उन सबकी क्षमा-प्रार्थना करता है । मतिरामजी का यह कथन देखिए- "कवित्तार्थ जानौं नहीं, कछक भयो संबोध; भूल्यो भ्रम ते जो कछुक, सुकबि पढ़ेंगे सोध ।" . हमारा नम्र निवेदन है कि ऐसे कथनों के स्थान पाने की संभा- वना कवि की प्रथम रचना में ही अधिक है। रसराज का अंत का दोहा भी यही इशारा करता है कि उक्त ग्रंथ ही कवि की प्रथम रचना है । यथा- "रसिकन के रस को कियो नयो ग्रंथ रसराज ।" कुल बातों पर विचार करके हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि रसराज ललित ललाम से पहले बना है। रसराज कब और किसके लिये बनाया गया, इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं है। रसराज की 'मनोहर-प्रकाश'-नामक एक टीका राज- स्थान-यंत्रालय, अजमेर में, सं १९५२ में, छपी थी। टीका के प्रारंभ में कवि-परिचय भी दिया गया है । उक्त परिचय का कुछ अंश नीचे उद्धत किया जाता है- "कहते हैं, यह तीसरा ग्रंथ रसराज दिल्ली के बादशाह औरंग- जेब के कहने से बनाया गया था, और प्रकट रूप से अपने इष्टदेव
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