पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२४९

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d समीक्षा २४५ मतिराम-सतसई महाकवि मतिराम ने दोहों की एक सतसई भी बनाई है, यह बात बहुत दिन से सुन पड़ती थी, पर सतसई की हस्त-लिखित प्रति सुलभ न थी। ऐसी दशा में 'रहीम-सतसई' के समान 'मतिराम- सतसई' की सत्ता के संबंध में भी बहुत लोगों को संदेह था; परंतु काशी की नागरी-प्रचारिणी सभा की ओर से जो खोज का काम होता है, उसके प्रयत्न से १२ या १३ वर्ष हुए, जब यह निश्चयात्मक पता लगा कि हुसेनगंज, फतहपुर के निवासी पं० शिवदुलारेजी दुबे के यहाँ उक्त सतसई की एक संपूर्ण हस्त-लिखित प्रति मौजूद है। सभा की ओर से उक्त पुस्तक का नोटिस भी लिया गया, जो खोज- विभाग की रिपोर्ट (बाबत सन् १९०९-११) के पृष्ठ २८५-८६ में है। दुबेजी ने कृपा करके अब वह हस्त-लिखित प्रति गंगा-पुस्तकमाला के स्वामी श्रीदुलारेलाल भार्गव के हाथ बेच डाली है, इसलिये अब वह जिल्द हमारे देखने में भी आ गई है। इसमें लिपि-काल नहीं दिया है। इस प्रति के मिलने के पूर्व हमें एक और खंडित प्रति श्रीयुत पं० भवानीशंकरजी याज्ञिक से मिली थी। शिवदुलारेजी की प्रति खंडित प्रति से काग़ज़ और लिपि में बिलकुल मिल जाती है। शायद दोनो प्रतियाँ एक ही लेखक की लिखी हैं। इसलिये जो बातें खंडित प्रति के विषय में लिखी जाती हैं, वे ही शिवदुलारेजी की प्रति के संबंध में भी कही जा सकती हैं। खंडित प्रति अधिक शुद्ध है। सतसई की जो खंडित प्रति हमारे देखने में आई है, वह संपूर्ण प्रति के एक-तिहाई अंश से अधिक नहीं है। अंत के ५० पृष्ठ से लेकर ७२ पृष्ठ तक खंडित नहीं है। यह स्पष्ट है कि इस हस्त-लिखित प्रति में ७२ पृष्ठ थे। प्रत्येक पृष्ठ की लंबाई साढ़े आठ इंच तथा चौड़ाई साढ़े पाँच इंच के लगभग है। औसत से प्रत्येक सफ़े में १५ पंक्तियाँ हैं । काग़ज़ मोटा, खुरखुरा और पुराने ढंग का लगा है। लिपि