तक जारी रहा। प्राचीन ब्रज-भाषा-काव्य में रमणीयता की जो यथार्थ सामग्री थी, वह कब तक छिप सकती थी ? ब्रज-भाषा के ग्रंथों का पाठ फिर से आरंभ हुआ, परंतु अब एक नई कठिनता उपस्थित हुई। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के समय से हिंदी-गद्य ने अच्छी उन्नति कर ली है। विविध विषयों के ग्रंथ हिंदी-गद्य में सुलभ हो रहे हैं। नियमित मासिक, साप्ताहिक एवं दैनिक साहित्य भी प्रकाशित होता है। जिस भाषा का प्रयोग इन सबमें होता है, वह ब्रज-भाषा से भिन्न है। वर्तमान गद्य से परिचित साहित्य-प्रेमियों में बहुत-से ऐसे हैं, जो ब्रज-भाषा का पर्याप्त ज्ञान नहीं रखते। इनके लिये प्राचीन ब्रज-भाषा-काव्य को समझना बड़ा कठिन हो गया है, इसलिये टीका-ग्रंथों की आवश्यकता पड़ी। टीका-ग्रंथ लिखने की चाल पहले भी थी, पर वे टीकाएँ भी ब्रज-भाषा में ही लिखी जाती थीं, इसलिये वर्तमान काल में उन टीकाओं से काम चलता न देखकर कई विद्वान साहित्य-मर्मज्ञों ने आधुनिक गद्य में ब्रज-भाषा के कई काव्यों के भाष्य लिखे। इससे ब्रज-भाषा-कविता पर लोगों की रुचि और भी अधिक हो गई। धीरे-धीरे ऐसी कविता पर आलोचनाएँ भी निकलने लगीं। आलोचना-प्रणाली प्राचीन कविता के लिये और भी उपयोगिनी सिद्ध हुई। इस समय ब्रज-भाषा के काव्य पर लोगों का अनुराग संतोषजनक रीति से बढ़ रहा है, इसलिये यह आवश्यक समझ पड़ता है कि प्रत्येक कवि पर ऐसी आलोचनाएँ लिखी जायँ, जिससे उस कवि की कविता से वर्तमान हिंदी-संसार का उचित परिचय हो जाय।
प्राचीन ब्रज-भाषा-कविता के प्रसिद्ध कवियों और आचार्यों में कविवर मतिराम की अच्छी ख्याति है। इनके दो ग्रंथ रसराज और ललित ललाम बहुत प्रसिद्ध हैं। पहले ग्रंथ में नायिका-भेद का विवेचन है, और दूसरे में अलंकारों का निरूपण। दोनो ही उच्च कोटि के ग्रंथ हैं। दोनो ही ग्रंथों पर अच्छी-अच्छी टीकाएँ लिखी गई हैं,