और टीकाकारों को अच्छा पारितोषिक मिला। इनकी बनाई 'मति राम-सतसई' पुस्तक भी अब मिल गई। यह ग्रंथ दोहामय है। इसमें 'रसराज' और 'ललित ललाम' के दोहे हैं। यह भी उत्कृष्ट ग्रंथ है। 'हिंदी-नवरत्न' में पूज्यपाद मिश्रबंधुओं ने इनकी कविता की आलोचना की, फिर भी हिंदी-संसार में बहुत से लोग अभी मतिराम के महत्त्व को भली भाँति समझ नहीं सके। हमारी राय में अभी आवश्यकता है कि हिंदी-साहित्य-संसार को उनका भली भाँति परिचय कराने को कोई बड़ा आलोचनात्मक ग्रंथ लिखा जाय। साहित्य-संसार के किसी योग्य विद्वान् को यह काम अपने हाथ में लेना चाहिए। तब तक हमीं मतिराम पर यह क्षुद्र आलोचना लिखकर पाठकों की भेंट कर रहे हैं।
श्रृंगार रस
विभाव, अनुभाव सात्त्विक भाव तथा व्यभिचारी भावों की सहायता से स्थायी भाव के रूप में जो प्रबलतर आनंदोद्भूति होती है, उसी को रस कहते हैं। आनंदोद्धति को साहित्य-शास्त्र में 'स्वाद' के नाम से पुकारते हैं। अपने स्पष्ट ज्ञान के द्वारा जो स्थायी भाव को परिपुष्ट करता है, उसे विभाव कहते हैं। विभाव के दो भेद माने गए हैं। जिस पर रस प्रधानतया अवलंबित है, उसे आलंबन- विभाव और जिससे रस की उद्दीप्ति होती है, उसे उद्दीपन-विभाव कहते हैं। कर्मेंद्रियों के सहारे जब भीतरी भाव बाह्य रूप से प्रकट होते हैं, तब उन्हें अनुभाव कहते हैं। अनुभावों से ही मिलते-जुलते सात्त्विक भाव हैं। पराई दुःख-हर्षादि भावनाओं में अपने अंतःकरण की अत्यंत अनुकूलता को 'सत्त्व' कहते हैं। इस अनुकूलता के वश खेद, हर्ष, रोमांच और अश्रु आदि का प्रादुर्भाव होता है। यही सात्त्विक भावों का रूप है। कायिक विकार अनुभाव और सात्त्विक, दोनो में ही समान हैं। जिन अनेक भावों का किसी रस-