समीक्षा २४७ मो मन-तम-तोमहि हरो राधा को मुख-चंद; बढे जाहि लखि सिंधु लौं नँद-नंदन-आनंद । भुंज-गुंज को हार उर, मुकुट मोर-पर-पुंज, कुंजबिहारी बिहरिए मेरेई मन-कुंज। रति-नायक-सायक-सुमन सब जग-जीतनवार; कुबलय-दल सुकुमार तन, मन कुमार जय मार। राधा-मोहन लाल को जा दिन लावत नेह; परियो मुठी हजार दस ताकी आँखिन खेह । (आदि) तेरी मुख-समता करी साहस करि निरसंक; धूरि परी अरबिंद - मुख, चंदहि लग्यो कलंक । खेलत गार सिकार है घाडोरे पास समेत; नैन-मृगनि सो बाँधिक, नैन-मृगनि गहि लेत । (मध्य) . मतिरामजी ने अपनी सतसई किन्हीं भोगनाथ नरनाथ के लिये बनाई है। इन्होंने भोगनाथ की बड़ी प्रशंसा की है। मतिराम-जैसे सत्कवि का सत्कार करनेवाले भोगनाथजी अवश्य ही गुणी और गुणियों का आदर करने वाले होंगे। हमें इनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं कि यह कहाँ के रहनेवाले थे, तथा इनका शासन-काल कौन-सा रहा है। इनसे संबंध रखने वाले भी दो दोहे नीचे दिए जाते हैं- सुनत सदा गुरु-बचन, हित रहत बिबुधगन-साथ; भोगनाथ यह जानियत सदा भूमि-सुरनाथ । सरनागत-पालक महा, दान-जुद्ध अति धीर; भोगनाथ नरनाथ यह पग्यो रहत रस-बीर । भोगनाथ का समय निश्चित हुए बिना 'मतिराम-सतसई' का समय बतलाना बड़ा कठिन काम है, पर हमारा अनुमान है कि संभ- वतः इसकी रचना 'रसराज' और 'ललितललाम' के बनने के बाद
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