पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

PRERNassa BOOR रसराज २५५ | तेरे सुसील सुभाव भट, कुलनारिन को कुलकानि सिखाई; तैही जनो' पतिदेवत के गुन गौरि सबै गुन गौरि पढ़ाई ।।११।। जानति सौति अनीति है, जानति सखी सुनीति । गुरुजन जानत लाज है, पीतम जानत प्रीति ॥१२॥ स्वकीया-भेद त्रिबिध स्वकीया जानियों, प्रथमहि मुग्धा नाम । मध्या पुनि, प्रौढ़ा गनौ, बरनत कबि 'मतिराम' ॥१३॥ मुग्धा-लक्षण अभिनव-यौवन-आगमन, जाके तन मैं होय । तासों मुग्धा कहत हैं, कबि-कोबिद सब कोय ॥१४॥ उदाहरण नैक मंद मधुर कपोल मुसिक्यान लागे, नक मंद गमन गयंदन की चाल भौ; रंचक' न ऊँचो लगो अंचल उरोजन के, अंकुरनि बंक-दीठि नेक सो बिसाल भौ। 'मतिराम' सुकबि रसीले कछु बैन भए, बदन सिंगार-रस बेलि-आलबाल भौ; बाल-तनु-जोबन-रसाल उलहत सब', सौतिन कै साल भौ, निहाल नंदलाल भौ ॥१५॥ अभिनव जौबन-जोति-सौं, जगमग होत बिलास। तिय के तनु पानिप बढ़े, पिय के नैननि प्यास ॥१६॥ १ मनी, २ जानिय, ३ अंग, ४ को, ५ रंच ऊँचो अंचल उरोजनि अंकुरनि बंक दीठि नैम जुग नेसुक बिलास भों, ६ लखि । छं० नं. १४ अभिनवनवीन । छं० नं० १५ आलबाल- थाल्हा । छं० नं० १६ पनिप=आब।