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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२६२

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मतिराम-ग्रंथावली


देखत ही नँदलाल को बाल के पूरि रहे अँसुवानि दृगंचल ; बात कही न गई, सु रही गहि हाथ दुहू सों सहेली को अंचल ।। ॥२५॥ ज्यों-ज्यों परसत' लाल तन, त्यों-त्यों राखै गोय।। नवल बधू डर-लाज से इंद्रबधू-सी होय ॥ २६ ॥ विश्रब्धनवोढ़ा-लक्षण होय नवोढ़ा के कछ प्रीतम सों परतीति । सो विस्रब्धनवोढ़ यों बरनत कबि रस-रीति ॥ २७॥ उदाहरण केलि के राति अघाने नहीं, दिन ही मैं लला पुनि घात लगाई; प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयौ, भीतर बैठिकै बात सुनाई। जेठी पठाई गई दुलही", हँसि, हेरि हरे 'मतिराम' बुलाई; कान्ह के बोल मैं कान न दीनो, सो गेह की देहरी पैधरि आई ॥ २८ ॥ प्रीतम तुम्हरी' सेज पर हौं आऊँ नँदलाल'। दया गहौ, बात न कहौ, दुख न दीजिए लाल ! ॥ २९ ॥ मध्या-लक्षण जाके तन २ मैं होत है लाज-मनोज समान । ताकौं१३ मध्या कहत हैं कबि 'मतिराम' सुजान ॥ ३० ॥ १ परसै, २ राखत, ३ बाल, नारि, ४ उर, ५ रैनि, ६ हूँ के, ७ जिठानी पठाई गई दुलही हँसि इत्यादि, जेठी पठाई गई इत्यादि, ८ हौं, ९ प्रीति तुम्हारी, १० मैं, ११ गोपाल, १२ मन, १३ तासों। "रही गहि हाथ दुहूँ सों सहेली को अंचल"=सहेली को अंचल पकड़ने में नायिका का यह अभिप्राय है कि तू यहीं रह, मुझे नायक के पास अकेली न छोड़ । इस वाक्य से नायिका का नवोढ़त्व सूचित होता है । छं० नं० २६ गोय=छिपाकर । इंद्रबधू बीरबहूटी । छं• नं० २८ जेठी जिठानी, पति के बड़े भाई की स्त्री।