२६० मतिराम-ग्रंथावली numanimaakisdewrbabliciencRSS RTHDANDESECONDARDNIGHALI mewatimeTAINMinedtamanipa saceasonETRICTLea r riaNALACKAASHTOTHARANAS लपटानी अति प्रेम सौं दै उर उरज-उतंग । घरी एक' लौं छुटेह पर रही लगी-सी अंग ॥ ३५ ॥ ___ मध्या-प्रौढ़ा-भेद मध्या प्रौढ़ा मानते तीन भाँति पुनि जानि । धीरा बहुरि अधीर तिय, धीराधीरा मानि ॥ ३६ ॥ ____मध्या-धीरा-प्रौढ़ा लक्षण बचननि की रचनानि सौं पियहि जनावत' कोप। मध्या धीरा कहत हैं ताहि सुमति-रस-चोप ॥ ३७ ॥ उदाहरण तुम कहा करो कान ! काम तैं अटकि रहे, तुमकौं न दोस, सो तो आपनोई भाग है ; आय मेरे भौन बड़े भोर उठि प्यार ही तै, अति हर बरन बनाय बाँधी पाग है। मेरे ही बियोग रहे जागत सकल राति, ___गात अलसात, मेरो परम सुहाग है; मनहु की जानी प्रानप्यारे ! 'मतिराम' यहै नैननि हूँ माहिं पाइयतु अनुराग है ॥ ३८ ॥ १ छूटे पर घरि एक लौ रहौ, २ प्रौढ़ा मध्या मान मैं, ३ और, ४ जनावै, ५ काहू, ६ तुम्हें कहा, ७ अंग अलसाने। छं० नं० ३५ उतंग उत्तुंग, ऊँचे । छं० नं० ३८ कान-कान्ह= कृष्ण । मनहु की जानी प्रानप्यारे पाइयतु अनुराग है नायिका व्यंग्य के साथ नायक से कहती है कि मेरे प्रति तुम्हारा अनुराग मन में भी है, और आँखों में भी । आँखों का अनुराग तो नेत्रों की लाली से स्पष्ट ही है, पर मन का अनुराग भी मुझसे छिपा नहीं है-मन में मेरे प्रति अनुराग रहने से ही पाग बाँधने में आपने हड़बड़ी की है, रात-भर मेरे वियोग में जगते रहे हैं, और शरीर में आलस्य भरा हुआ है। पर
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