विशेष से संबंध नहीं है, तथा जो स्थायी भाव रूप-सागर में तरंगों के समान उठते और नष्ट होते रहते हैं, उन्हें व्यभिचारी भाव कहते हैं।
भाव की व्युत्पत्ति 'भावन' या 'वासन' से है। इसका अर्थ सुगंधि है। सुख-दुःखादि भावों की सुगंधि से जो परिपूर्ण हो, वही भाव है। विरुद्ध-अविरुद्ध, सभी प्रकार के भाव जिस भाव-विशेष पर कोई प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पाते हैं, उस भाव-विशेष को स्थायी भाव कहते हैं। जैसे लवण समुद्र में गिरकर सभी वस्तुओं का स्वाद लवण हो जाता है—स्वयं लवण समुद्र के स्वाद में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, उसी प्रकार अनेक प्रकार के भाव स्थायी भाव को किसी प्रकार से विकार-ग्रस्त नहीं कर पाते। उसमें अस्थायित्व नहीं आता। वह ज्यों-का-त्यों स्थायी बना रहता है।
सात्त्विक भाव आठ हैं। स्थायी भाव भी आठ हैं। व्यभिचारी भाव तेंतीस हैं। इस प्रकार भावों की संख्या ४९ है।
आठ सात्त्विक भावों के नाम ये हैं— स्तंभ, प्रलय, रोमांच, स्वेद, वैवर्ण्य, वेपथु, अश्रु और स्वर-भंग।
लज्जा, हर्ष आदि के कारण शरीर की संचालन क्रिया का बंद हो जाना स्तंभ है। प्रलय में ज्ञान क्रिया की भी निराकृति हो जाती है। वेपथु कंप को कहते हैं। वर्ण का अपना पूर्व रूप छोड़ देना वैवर्ण्य है।
आठ स्थायी भावों के नाम ये हैं—
रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय।
कुछ आचार्य 'शम'-नामक नवें स्थायी भाव को भी मानते हैं। प्रेम-रस से चित्त का आर्द्र होना 'रति' है।
उपर्युक्त स्थायी भावों द्वारा जब आनंदोद्भूति होती है, तब क्रम से निम्न लिखित रस उपलब्ध होते हैं—
श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत।