पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२८१

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रसराज २७७ आवति हौं जमुना-तट' कौं नहिं जानि परै बिछरे गिरिधारी; जानति हौं सखि, आवन चाहत कुंजत तें कढ़ि कुंजबिहारी ।। ११८॥ लाज छुटी, गेहौ छुटयो, सुख सौं छुट्यो सनेह । सखि, कहियौ वा निठुर सौं, रही छूटिबे देह ॥११९।। सामान्या-प्रोषितपतिका-उदाहरण आली सिँगारति है हठ सौं, पर लागत अंग सिँगार अँगारौ; पीरी परी तन मैं 'मतिराम' चले अँखियान तैं नीर-पनारौ । सोउ नहीं मनभावन नायक आवत जो बहुतै धनवारौ; बारबिलासिनि कौं बिसरै न बिदेस गयो पिय प्रानपियारो॥ १२०॥ धन के हेतु बिलासिनी रही सँवारे बेस । जो तिय के हिय मैं बसे सो पिय बसे बिदेस ॥१२१।। खंडिता-लक्षण पिय-तन और नारि के रति के चिह्न निहारि । दुखित होत सो खंडिता, बरनत सुकबि बिचारि ।।१२२।। मुग्धा-खंडिता-उदाहरण लाल तुम्हें कहुँ और तिया की लख्यो अँगिया मैं लगावत चोवै; ता छिन ते 'मतिराम' न खेलत, बूझें सखीनहु सौं दुख गोवै । १ जल, २ सो न अहै, ३ सुधारि । छं० नं० ११९ निठुर=निष्ठुर, दयाभाव-रहित । रही छुटिबे देह = मरना बाकी है। छं० नं० १२० आली सिंगारति है सखी शृंगार करती है । बारबिलासिनि वेश्या। छं० नं० १२३ लिखै कर के नख सौं पग को नख हाथ के नाखून से पैर के नाखून को खरोचती है ।