पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसराज २८१ देखत ही सिगरी सजनी तुम मेरो तो मान महा मद छायो; रूठि गयो उठि प्रानपियारो कहा कहिए तुमहूँ न मनायो । १३८॥ पीतम जब पाँयन परयो, तब अति भई सरोस । कह्यो न मान्यो कंत' कौ, हमें दीजियतु दोस ।।१३९।। परकीया-कलहांतरिता-लक्षण जाके लिये ग्रह-काज तज्यो, न सिखी सखियान की सीख सिखाई; बैर कियो सिगरे ब्रजगाम सौं, जाके लिये कूल-कानि गमाई॥ जाके लिये घर-बाहर हूँ मतिराम' रहे हँसि लोग-लुगाई। ता हरि सौं हित एकहि बार गँवारि मैं तोरत बार न लाई । १४०॥ जोरत हू सजनी बिपति, तोरत बिपति समाज । तेह कियो बिन काज पुनि, तेहि कियो बिन काज ।।१४१॥ ___ गणिका-कलहांतरिता-लक्षण जाते लही जग-बीच बड़ाई मैं, मेरे बियोग जो होत है छीनों; मोहि गिने 'मतिराम' जो प्रान सो, मेरे सदा हीं रहे जो अधीनों। मेरे लिये नित ही उठि के गहनों जु गढ़ाय के लावे नवीनों; प्रानपियारो सो पाइन लाग्यो री, मैं हँसि कंठ लगाइ न लीनों ॥१४२॥ जासों कियो सनेह मन, रही न एको साध।। तासो भई सरोस हौं, सजनी बिन अपराध ॥१४३।। १ आपु ही, २ चवाई, ३ सपत, ४ ही, ५ किन, ६ भरि । छं० नं० १४० कुल-कानि=कुल-लज्जा । गँवारि मैं तोरत बार न लाई=मेरी-जैसी गँवारिन ने प्रीति तुरंत तोड़ डाली। छं० २० १४१ तेह=क्रोध ।