करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक रस शृंगार के विरोधी हैं, तथैव हास्य रस श्रृंगार का मित्र है।
सब रसों के अनुभाव भी अलग-अलग हैं। पर श्रृंगार रस में 'हाव' और 'सात्त्विक भाव' इन नामों को छोड़कर अनुभावों के कोई अलग-अलग नाम नहीं रक्खे गए हैं। संस्कृत और हिंदी में काव्य-शास्त्र-संबंधी जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनसे यही प्रमाणित होता है कि अनुभावों का संख्याधिक्य भी श्रृंगार रस में ही पाया जायगा।
एक उदाहरण द्वारा इस रसोत्पत्ति का क्रम समझाया जाता है। पूर्ण चंद्रमा सोलहों कला से प्रकाशमान है। जातीपुष्प वन में खूब फूला है। कुमुदिनी के फूलों पर भ्रमरगण गुंजार कर रहे हैं। ऐसे समय में श्रीकृष्ण ने बाँसुरी बजाई। गोपियाँ व्याकुल हो उठीं। गोपों की परवा न करके वे सब उठ उठकर उसी ओर चल पड़ीं, जिधर बाँसुरी-ध्वनि आ रही थी—
पूरन चंद उदोत कियो, घन फूलि रही बनजाति सुहाई;
भौंरन की अवली कलकैरव कैरव-कुंजनि मैं मृदु गाई।
बाँसुरी-ताननि, काम के बाननि सों 'मतिराम' सबै अकुलाई;
गोपिन गोप कुछ न गने, अपने-अपने घर ते उठि धाई।
गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति जो अपूर्व प्रेम है, वही इस कविता का 'स्थायी भाव' है। स्थायी भाव स्वाद देने योग्य हो, वह 'रस' के गौरव को प्राप्त कर सके, इसके लिये विभाव और अनुभावों की आवश्यकता है। यहाँ पर गोपियों के प्रेम का एकमात्र अवलंब किस पर है? उत्तर मिलता है, श्रीकृष्ण पर; अतएव श्रीकृष्ण आलंबन विभाव हुए। उधर चंद्रमा का पूर्ण प्रकाश, वनजाति और कुमुदिनी का फूलना, उन पर भ्रमरों की गुंजार, रात्रि का समय, ऐसे में बाँसुरी का बजना—ये सब स्थायी भाव के उद्दीपक हैं। इन्हीं को उद्दीपन विभाव कहते हैं। सो श्रीकृष्ण-रूप में आलंबन और प्रकृति-सौंदर्य-