पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३०

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मतिराम-ग्रंथावली

रूप में उद्दीपन विभाव स्थायी भाव को पूर्ण रूप से परिपुष्ट कर रहे हैं । इसका प्रभाव यह पड़ा कि गोपियाँ उठकर दौड़ी। वे अपने को रोक न सकीं। यह अनुभाव है। गोपियों की कृष्ण से मिलने की उत्सुकता और अभीष्ट-साधन के लिये स्वयं धावित होना आदि अनेक ऐसी बातें हैं, जो उत्सुकता और चपलता आदि संचारी भावों की सूचना दिलाती हैं। इस प्रकार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट स्थायी भाव रसत्व को प्राप्त करता है । रति स्थायी भाव होने के कारण छंद में श्रृंगार-रस स्थापित होता है। अन्य रसों में भी इसी प्रकार से विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों की सहायता अपेक्षित होती है। ऊपर रसों के नाम दिए जा चुके हैं। संस्कृत और हिंदी के अनेक विद्वानों का यह मत रहा है कि सब रसों में श्रृंगार-रस ही सर्व-श्रेष्ठ है। इन विद्वानों की सम्मतियाँ तो हम आवश्यकतानुसार बाद को उद्धृत करेंगे, परंतु यहाँ हमें केवल इतना ही विचार करना है कि उक्त विद्वानों के कथन पर अंधविश्वास न करते हुए हम इस बात का निर्णय कैसे करें कि सर्व-श्रेष्ठ रस कौन है ? संस्कृत और हिंदी-कविता के आचार्यों ने रसोत्पत्ति के संबंध में जो मत निर्धारित किया है, उसका अत्यंत स्थूल दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है । उस दिग्दर्शन का सार हमें तो यही समझ पड़ता है कि रस के लिये व्यभि- चारी भाव, आलंबन और उद्दीपन विभाव, अनुभाव तथा स्थायी भाव की परमावश्यकता है। जब रस की उत्पत्ति इन्हीं पर निर्भर है, तो इनकी उत्तमता या खराबी भी रस की उत्तमता और खराबी पर अपना प्रभाव अवश्य ही डालती होंगी, अर्थात् जिस रस के भाव, विभाव और अनुभाव उत्तम होते होंगे, वह रस भी उत्तम होता होगा, तथा जिसके खराब होंगे, वह रस भी खराब होगा। ऐसी दशा में यदि सभी रसों के स्थायी, संचारी, अनुभाव और विभावों पर तुल-