कंत' बाट लखि गेह कौं कुंज देहरी आय।
ऐहैं पीव बिचारि यों, नारि फेरि फिरि जाय ॥१६४॥
गणिका-उत्कंठिता-उदाहरण
पीतम को धरि ध्यान घरीक, करे मन-ही-मन काम किलोलैं;
पातहू के खरके 'मतिराम' अचानक ही अँखियाँ पुनि खोलें।
पीतम ऐहैं अजो सजनी ! अँगराय, अँभाय, घरीक यों बोलैं;
गावे घरीक गरे ही हरे-हरे, गेह के बाग हरे-हरे डोलें ॥१६५।।
बारबधू पिय-पंथ लखि अँगरानी अंग-मोरि।
पौढि रही परजंक जन डारी मदन मरोरि ॥१६६।।
बासकसज्जा-लक्षण
ऐहैं प्रीतम आजु यों, निश्चय जाने बाम ।
साजे सेज सिंगार सुख' बासक-सज्जा नाम ॥१६७।।
मुग्धा-बासकसज्जा-उदाहरण
भई हौ सयानी तरुनाई सरसानी प्रीति,
प्रीतम पत्यानी दूरि लाज उर नाखियो;
कबि 'मतिराम' काम केलि की कलानि करि,
मोहन लला को बस कीबो अभिलाखियो।
R
१ कंत बाट लखि कुंज ते गेह देहरी आय;
प्यो आयो द्वैहै समुझि नारि फेर फिर जाय ।
२ पलकै, ३ मनु, ४ ही, ५ सखि ।
छं० २० १६५ गावे घरीक गरे ही हरे-हरे=कुछ समय के लिये
अस्पष्ट स्वर में (गले में ही) धीरे-धीरे गाती है। इस छंद में गणिका
स्पष्ट नहीं है। "मन-ही-मन काम किलोलैं" का यह अर्थ लगाने से कि
'मणियों में ही मन लगाकर काम की किलोल करती है' तथा अंतिम
पद में गाने का उल्लेख होने से गणिकत्व सिद्ध होता है । छं० २० १६६
अँगरानी=अँगड़ाग ली। छं० नं० १६८ नाखियो रखना।
पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२९१
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रसराज