पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/२९३

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रसराज

रसराज २८९ फैलि रही ‘मतिराम' जहाँ-तहाँ दीपति दीपनि' की परभा है, लाल! तिहारे मिलाप को बाल ने आजु करी दिन में ही निसा है। १७२॥ सब सिँगार सुंदरि सजै बैठी सेज बिछाय । भयो द्रौपदी को बसनु बासर नाहिं बिहाय ॥१७३।। परकीया-बासकसज्जा-उदाहरण साँझ ही तें करि राखे सबै करिबे के जे काज हुते रजनी के; पौढि रही उमगी अति ही, 'मतिराम' अनंद अमात न जी के। सोवत जानि के लोग सबै, अधिकाने मिलाप मनोरथ पी के; सेज ते बाल उठी हरुए-हरुए, पट खोल दिए खिरकी के ॥ १७४॥ मनमोहन के मिलन को, करै मनोरथ नारि । धरै पौन के सामुहें दियो भौन' को बारि ॥१७॥ १ सुतारन, २ सु, ३ मानो, ४ ही, ५ बिलास, ६ नीके, ७ नारि, ८ करि मनोरथ, ९ भवन । अंगारनि धप के=आग में सुगंधित धूप डाल कर उससे जो धुवाँ उठा उससे बालों को शुष्क किया। जोन्ह चाँदनी। दीपति दीपनि की परभा है=दीपकों की प्रभा उद्दीपित हो रही है। छं० नं० १७३ द्रौपदी को बसनु=बहुत लंबा, जिसका ओर-छोर न हो । छं० नं०१७४ अनंद अमात न जी के हृदय में आनंद समाता नहीं है। अधिकाने मिलाप मनोरथ पी के=प्रियतम से मिलने की इच्छा खूब उत्तेजित हो उठी । हरुए-हरुए धीरे-धीरे । छं० नं० १७५ हवा के सामने दीपक रखने से वह बुझ जाता है। नायिका ऐसा इसलिये करती है जिसमें अँधेरे में नायक से मिलने में सुभीता रहे।