मतिराम-ग्रंथावली Share WEBDURARISHTHANIADMINS जात, परकीया-दिवाभिसारिका-उदाहरण सारी जरतारी की झलक झलकति तैसी, . केसरि को अंगराग कीनो सब तन मैं; तीखनि तरनि के किरन ते दुगुन जोति, जगत जवाहर-जटिल आभरन मैं। कबि ‘मतिराम' आभा अंगनि अंगारनि की, धूम की-सी धार छबि छाजति कचन' मैं; गीषम-दुपहरी मैं हरि कौं मिलन जात, ____जानी जात नारि न दवारि जुत बन मैं ॥२०१॥ गीषम-रितु की दुपहरी चली बाल बन-कंज। अंग लपटि तीछन लुएँ, मलय-पवन के पुंज ॥२०२॥ सामान्या-अभिसारिका-उदाहरण साँझ ही सिँगार सजि प्रानप्यारे पास जाति, बनिता बनक बनी बेलि-सी अनंद की। कबि ‘मतिराम' कलकिकनी की धुनि बाजै, मंद-मंद चलनि' बिराजत गयंद की। केसरि रँग्यो दुकल, हाँसी में झरत फूल, - केसनि मैं छाई छबि फूलन के बृद की; । Maa merenceTMANASSORSELESED meena ventionarmireonlineneNTORIES moonamtart १ सोहत, २ कुचन, ३ जात, ४ आगि लपट, ५ चाल ज्यों। छं० नं० २०१ तीखनि तरनि... आभरन मैं जवाहरात से जड़े हुए भूषणों में तीक्ष्ण सूर्य की किरणों से भी दुगुनी ज्योति जगमगाउठी है। कच=बाल । दवारि=दावाग्नि । छं० नं० २०२ गीषम-ऋतु की दुपहरी "पुंज=ग्रीष्म ऋतु में मध्याह्न के समय नायिका वन-स्थित कुंज को ओर चल पड़ी। उस समय उसके शरीर में तीक्ष्ण लूह ऐसी लगती थी मानो वह मलयाचल का शीतल समीर हो । छं०नं० २०३ 'बनक बनी'
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