पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२९७
रसराज

रसराज २९७ पीछे-पीछे आवत अँधेरी-सी भँवर-भीर, आगे-आगे फैलत उजारी मुखचंद की ॥२०३॥ नागरि सकल' सिँगार सजि चली प्रानपति पास। बाढ़ि चली बिहसनि मनो सोभा सहज' बिलास ॥२०४॥ प्रवत्स्यत्प्रेयसी-लक्षण होनहार पिय के बिरह बिकल होय जो बाल । ताहि प्रवच्छतिप्रेयसी, बरनत बुद्धि-बिसाल ॥२०॥ मुग्धा-प्रवत्स्यत्प्रेयसी-उदाहरण , जा दिन तैं चलिबे की चरचा चलाई तुम, ___ता दिन तैं वाके पियराई तन छाई है; कहै 'मतिराम' छोड़े भूषन, बसन, पान, सखिन सौं खेलनि, हँसनि बिसराई है। आई रितु सरभि, सहाई प्रीति वाके चित्त, ___ ऐसे मैं चलौ तो लाल रावरी बड़ाई है; सोवत न रैन-दिन, रोवति रहति बाल, बूझे तें कहत मायके की सुधि आई है ॥२०६॥ क्यों सहिहै सकूमारि वह पहलो विरह गुपाल ! जब वाके चित हित भयो चलन लगे तब लाल ॥२०७।। मध्या-प्रवत्स्यत्प्रेयसी-उदाहरण गौने के द्यौस छ: सातक बीते न, चौथी कहा अबहीं चलि आई; लालन बाल के ता छिन मैं 'मतिराम' परी मुख पै पियराई । १ शकल, २ बारिधि बीचि, ३ प्रवत्स्यत्प्रेयसी, ४ इत । में बनी पद में बनिन-बनिए की पत्नी का भाव लेकर गणिकत्व स्थापित किया जाता है पर असल में संध्या से ही निःशंक होकर जाना; आभूषणों का झनकाना आदि ऐसी बातें हैं जो उसके गणिकत्व को स्पष्ट करती हैं। छं० नं० २०७ हित=प्रीति ।