पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३१७

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रसराज ३१३ उदाहरण प्यार पगे बचन-पियूष पान करि-करि, उमगि-उमगि तिय आनंद बिसेखिहौं; कबि' 'मतिराम' तन-तपनि बुझाय जैहै, तब निज जनम सफल करि लेखिहौं । हीतल को सीतल करन चारु चाँदनी-सी, मंद मृदू मुसकानि अनमिख पेखिहौं; है तब निसा मेरे लोचन-चकोरनि को, जब वाको आनन अमल इंदु देखिहौं ॥२७३।। प्रफूलित सुमन-समाज मैं करबीरे आनंद केलि । सो नीके दिन लागिहैं उर सोने को बेलि ॥२७४॥ दर्शन-भेद दरसन आलंबनहिं मैं कबि ‘मतिराम' सुजान । स्रवन, स्वप्न अरु चित्र त्यों, पुनि प्रत्यच्छ बखान ॥२७॥ __ श्रवण-दर्शन-उदाहरण आनन-पूरनचंद लसै अरिबिंद-बिलास-बिलोचन पेखे; अंबर पीत लसै चपला छबि अंबुद मेचक अंग उरेखे । काम हूँ तैं अभिराम महा 'मतिराम' हिए निहचै करि लेखें; तैं बरनैं निज बैनन सौं सखी मैं निज नैनन सौं जनु देखें । २७६॥ १ कहै, २ करबो, ३ हि मान, ४ हंस, ५ मनु । छं० नं० २७३ हीतल हृदय-तल । अनमिख=टकटकी लगाकर, विना पलक गिराए। छं० नं० २७४ प्रफुलित बेलि=प्रोषित नायक कहता है कि मैं खूब आनंद-केलि करूंगा। वे दिन बड़े ही अच्छे लगेंगे जब मेरी केलि-स्थली सुमनवाली (अच्छे मन की नायिका)होगी और मेरे हृदय में सोने की बेलि पड़ी होगी अर्थात् स्वर्ण वर्ण की (चंपकवर्णी) नायिका हृदय से लिपटी होगी। छं० नं० २७६ उरेखे–अवरेखे चित्रित किया।