३१४ मतिराम ग्रंथावली - जैसो बरन्यो तें सखी, रूप कान्ह को आय । तैसोई मेरे चखन' रह्यौ आइ ठहराय ॥२७७।। स्वप्न-दर्शन-उदाहरण आवत मैं सपने हरि को लखि नैसूक बाट सकोचन छोडी; आगे है आड़े भए ‘मतिराम' चली सुचितें चख लालच वोड़ी। ओठन को रस लेन को मोहन, मेरो गहो कर काँपति ठोड़ी; और भिट ! न भई कछ बात, गई इतने ही मैं नींद निगोड़ी। २७८॥ पिय-मिलाप को सुख सखी ! कह्यौ न जात अनूप । सौतुक सो सपनो भयो, सपनो सौतुक रूप ॥२७९।। चित्र-दर्शन-उदाहरण अचल भए हैं, गात परस न जान्यौ जात, कही न सुनत बात, जात बात न कही; सूंघे न सुबास, न सुमन की समुझि परै, टकटकी बड़े-बड़े दृगन मैं उलही। कबि 'मतिराम' तोहि नेक परवाह नहीं, ऐसी भाँति भई वह तेरे नेह सौं नही'; एरे चितचोर ! चलि चाहि चंदमुखि तोहि, चित्र ही मैं चाहि-चाहि चित्र ही मैं हूँ रही ॥२८०॥ १ उर, २ ओड़ी, ३ मेरी गही कर कंजनि ठोढ़ी, ४ कहैं, ५ सू नहीं, _छं० नं० २७८ वोड़ी-ओड़ी=ओट। आड़े भए मार्ग अवरुद्ध किया। छं० नं० २७९ सौतुक =प्रत्यक्ष । छं० नं० २८० नेह सौं नही=नेह से संलग्न । चित्र ही मैं चित्र ही मैं ह रही चित्र ही में तुमको चाह-चाह कर वह चित्रमय हो रही है अर्थात् उसको सब कहीं चित्र-ही-चित्र दिखलाई पड़ता है।
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