३२० मतिराम ग्रंथावली उदाहरण-कवित्त चरन धरै न भूमि बिहरै तहाँई जहाँ, फूले-फूले फूलनि बिछायौ परजंक है; भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं, करति न अंगराग कुंकुम को पंक है। कबि 'मतिराम' देखि बातायन बीच आयो, आतप मलीन होत बदन मयंक है; कैसैं वह बाल लाल बाहिर बिजन आवै', बिजन बयारि लागें लचकत लंक है ॥३०४।। रीझि रही रिझवारि वह तुम ऊपर ब्रजनाथ ! लाज सिंधु की इंदिरा, क्यौंकर आवै हाथ ? ३०५॥ अधमा दूती-लक्षण अधम दृतिका जानिए बचन कहत सतराय । ग्रंथन को मति देखि कैं बरनत सब कबिराय ॥३०६॥ उदाहरण जानत कछ न पै कहावत रसिकराय, ल्याउ-ल्याउ अबहीं तिहारे यह टेक है ; करन की रीति है जु डेल ऐसो डारि देत, _ 'मतिराम' चतुराइ चतुर लिए कहै । बोली ना नवेली कछ बोल सतराय वह, मनसिज ओज को सुहानौं कछु सेक है; १ जाय, २ ज्यों सिंधुर की, ३ आजु । छं० नं० ३०४ कुंकुम =केसरि । कबि मतिराम देखि बातायन.. मयंक है मतिराम कहते हैं कि खिड़की से जो थोड़ी धूप आ जाती है उससे मुखचंद्र मलीन हो जाता है । बिजन=निर्जन स्थान । बिजन- व्यजन=पंखी । छं० नं० ३०५ इंदिरा लक्ष्मी । छं० नं० ३०७ कूरन
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