पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३४ मतिराम-ग्रंथावली सारी सुही 'मतिराम' लसै मुख संग किनारी की यौं छबि छाजै ; पूरन चंद पियूष मयूष मनो परबेष की रेख बिराजै ॥ ३७५ ॥ बिरी अधर, अंजन नयन, मिहँदी पग अरु पानि । तनु कंचन के आभरन, नीठि परत पहिचानि ।। ३७६ ॥ विहितहाव-लक्षण जो परिपूरन होत नहिं पिय समीप अभिलाख । ताकौं बिहित बतावहीं, जिनकी कबिता दाख' ॥ ३७७ ॥ उदाहरण सकल सहेलिन के पीछ-पीछे डोलति है, मंद-मंद गौनु आजु हिय को हरत है ; सनमुख होत 'मतिराम' सूख होत जब, पौन लागे घूघट को पट उघरत है। कालिदी के तट बंसीबट के निकट, नंदलाल कौं सकोचन तें चाह्यौ न परत है ; तनु तो तिया को बर भाँवरें भरत मनु, . सामरे बदन पर भाँवरै भरत है ॥ ३७८ ॥ रूप साँवरो साँच है सुधा-सिंधु मैं खेल। लखि न सके अँखियाँ सखी परी लाज की जेल ॥ ३७९ ॥ १ साख, २ जमुना, ३ पै, ४ को, ५ लाल। छं० नं० ३७५ सुही=सूही हलके कासनी रंग की । पूरन चंद पियूष मयूष "रेख बिराजै अमृत किरणों वाले पूर्ण चंद्र के आस-पास मानो मंडल की रेखा हो । परबेष=मंडल । छं० नं० ३७६ नीठि=कठि- नता से। छं० नं० ३७८ तन तो तिया भरत है नायिका का शरीर तो बरगद के आस-पास फेरे कर रहा है, पर मन तो श्यामवर्ण कृष्ण के ऊपर मँडला रहा है । छं० नं० ३७९ लाज की जेल=लाज का बंधन ।