पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

CHANCHAR ALA रसराज ३४१ उदाहरण मोर-पखा 'मतिराम' किरीट मैं, कंठ बनी बनमाल सुहाई; मोहन की मुसकानि मनोहर, कुंडल डोलनि मैं छबि छाई । लोचन लोल बिसाल बिलोकनि, को न बिलोकि भयो बस माई? वा मुख की मधुराई कहा कहौं ? मीठी लगै अँखियान-लुनाई। ४१०॥ सरद चंद की चाँदनी, जारि डारि किन मोहि ? वा मुख की मुसकानि सम', क्यौं हूँ कहौं न तोहि ? ४११॥ उद्वेग-लक्षण बिरह बिथा की बिकलता, जहाँ कछू न सुहाय । ताहि कहत उद्वेग हैं, जे प्रबीन कबिराय ॥४१२॥ उदाहरण चाहि तुम्हें 'मतिराम' रसाल, परी तिय के तन मैं पियराई; काम के तीच्छन तीरन सों, भरि भीर तुनीर भयो हियराई। तेरे बिलोकिबे कौं उतकंठित, कंठ लौं आय रह्यौ जियराई; नेक परे न मनोज के ओजनि, सेज सरोजनि मैं सियराई॥ .४१३॥ १ सरि, २ कबहुँ कहौं नहिं । छं० नं० ४१० वा मुख की मधुराई 'लुनाई जिन कृष्णजी की आँखों का नमकीनपन मीठा लगता है उनके मुख की मधुरता की क्या बात कही जाय। छं० नं० ४११ सरद चंद की तोहि ? =विरहिणी कहती है कि अरी शरद्-ऋतु की चाँदनी, तू मुझे जला ही क्यों न डाले, पर मैं कृष्णचंद्र के मुख की मुसकराहट के बराबर तुझे कभी न कहूँगी। छं० नं० ४१३ भरि भीर तुनीर भयो हियराई हृदय में इतने तीर लगे कि वह तरकस समझ पड़ने लगा । कंठ लौं आय रहयो जियराई प्राण कंठगत हुए । नेक परैः सियराई काम-संताप के कारण कमलशय्या में भी ठंठक नहीं पडने पाती है।