पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३५४

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मतिराम-ग्रंथावली

३५० मतिराम-ग्रंथावली - न चंद्रमुखिन के भौंह जुग, कुटिल कठोर उरोज । बानिन सौं मन कौं जहाँ मारत एक मनोज ॥ २० ॥ जहाँ चित्त-चोरी करै मधुर-बदन-मुसकानि । रूप ठगत हैं दृगन कौं और न दूजो जानि ।। २१ ।। ता नगरी को प्रभु बड़ो हाड़ा सरजनराव। रच्यो एक सब गुनिन को बर बिरंचि समुदाव ॥ २२ ॥ नृपवंश-वर्णन एक धर्म' गृह खंभ जंभरिपु-रूप अवनि पर; एक बुद्धि गंभीर धीर बीराधिबीरबर । एक ओज' अवतार सकल सरनागतरच्छक ; एक जास करबाल निखिल खलकूल कहँ तच्छक । 'मतिराम' एक दातानिमनि जगजस अमल प्रगट्टियउ; चहुवानबंस-अवतंस इमि एक राव सुरजन भयउ ॥ २३ ॥ दान समै गनै धन तृन सों कुबेर हू को, तनक समेरु महादानि ऊँचे मन को ; पृथु सों प्रथित' पृथ्वी प्रबल प्रतापवंत, प्रभु पुरहूत सों प्रगट पूरे पन को। 'मतिराम' कहै बैरी-बारन बिदारिबे कौं, रूप धरें राजै मृगराज रनबन को ; दुरजनबधू-उरजन को सिंगारहर, ऐसो जस गावै सुरजन सुरजन को ॥२४॥ १ धरमु, २ भोज, ३ सकल, ४ अरिकुल, ५ पृथीप । छं० नं० २३ जंभरिपु=इंद्र। करबाल=तलवार । निखिल = सब । प्रगट्टियउ प्रकट किया । अवतंस=सूर्य । छं० नं० २४ प्रथित= स्थित । पुरहूत=इंद्र । दुरजनबधू सिंगारहर=खलों की स्त्रियों के योवन शृंगार को नष्ट करनेवाला है अर्थात् उनको सौभाग्यहीन बनानेवाला है।