सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३८५
ललितललाम

ललितललाम । ३८५ . अप्रकृत-उदाहरण कहा भयो जग मैं बिदित भए उदित छबि लाल। तो ओठनि की रुचिर रुचि पावत नहीं प्रबाल ॥१७०। प्रकृताप्रकृत-उदाहरण छबिजुत छीरधि तरंगनि बढ़ावत है,

जगत पसारत चमेली की सुबास कौं;

कहै 'मतिराम' कुमुदिनि के परागनि' सौं, सरस करत चारु चाँदनी प्रकास कौं। सब ही के प्रान रूप हिय मैं बसत अति, ब्यापक दै फैलि रह्यौ अवनि अकास कौं; राव भावसिंह जस रावरो करत दिसि, बिदिसि बिहार गहे बात के बिलास कौं ॥१७१॥ बसत जासु हिय बासुदेव पानिप अति छाजत; तजत न बर मरजाद परम गंभीर बिराजत । रतन सुतन अवलोकि लोक-पतिमान सलुंभहि; मुकुत रूप धरि सुजस नपति स्रवननि सुभसंभहि। महिमा अपार ‘मतिराम' कहि जगत जगत सब घेरि तिमि'; भुव भावसिंह भूपाल मनि रोज मौज दरियाव इमि ॥१७२॥ अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण अप्रस्तुतै प्रसंसिए, प्रस्तुत लीने नाम । तहँ अप्रस्तुत परसंस को, बरनत है 'मतिराम ॥१७३॥ उदाहरण आनन-चंद निहारि-निहारि नहीं तनु औ धन-जीवन वारे; चारु चितौनि चुभी 'मतिराम' हिए मति कौं गहि ताहि निकाएँ। १ प्रकासनि, २ सतन, ३ सालुंभहि, ४ बात, ५ मति-अवदात । छं० नं० १७२ सलुंभहिललचाते हैं। दरियाव=समुद्र ।