पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/३९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३९० मतिराम-ग्रंथावली ERE DHARNATARATHIssuegories " प्रथम विभावना-लक्षण बिना हेतु जहँ बरनिए प्रगट होत है काज । प्रगटित तहाँ बिभावना कहत सकल कबिराज ॥१९६ ॥ बातनि जाय लगाय लई रस ही, रस मैं मन हाथ कै लीनौं ; लाल तिहारे बुलावन को 'मतिराम' मैं बोल कह्यौ परबीनौं । बेग चलौ न बिलंब करौ लख्यौ, बाल नबेली को नेह नबीनौं ; लाज भरी अँखियाँ बिहँसी बलि, बोल कहें बिन उत्तर' दीनौं । १९७॥ द्वितीय विभावना-लक्षण थोरे हेतुनि सौं जहाँ प्रगट होत है काज । तहँ बिभावना औरऊ बरनत बुद्धि जहाज ॥१९८॥ उदाहरण " तेरो कह्यो सिगरो मैं कियो निसि-घोस तप्यो तिहुँ तापनि पाई; मेरो कह्यो अब तू करि जो सब, दाह मिटे परिहै सियराई। संकर-पायनि मैं लगि रे मन, थोरे ही बातनि सिद्धि सुहाई; आक-धतूरे के फूल चढ़ाए तें, रीझत हैं तिहुँलोक के साँई ॥१९॥ तृतीय विभावना-लक्षण जहाँ हेतु प्रतिबंध ह बरनत प्रगटै काज । बरनत और बिभावना तहँ कबिराज समाज ॥२०॥ उदाहरण मानत लाज लगाम नहि नैक न गहत मरोर। होत तोहि लखि बाल के दृग-तुरंग मुँहुजोर ॥२०१॥ १ ऊतरु, २ ते यों, ३ तताई, ४ को, ५ लाल । छं० नं० १९७ बोल कह्यो परजीनौं प्रवीणता से बात कही। बलि=बलि जाऊँ, वलिहारी जाऊँ, बलइया लूँ । छं० नं० १९९ आक- अर्क=मदार । साँई स्वामी, मालिक। छं० नं० २०१ मरोर= रोक । मुँहजोर=सबल, चंचल ।