ललितललाम ३९३ प्रथम असंगति-लक्षण होत हेतु जहँ और थल, काज और थल होय। तहाँ असंगति कहत हैं, कबि रस बुद्धि समोय ॥ २१४ ॥ उदाहरण दारुन तेज दिलीस के बीरनि, काहू न बंस के बाने बजाए'; छोड़ि हथ्यारनि हाथनि जोरि, तहाँ सबही मिलि मूड़ मुड़ाए। हाड़ा हठी रहयौ ऐंड किए ‘मतिराम' दिगंतन मैं जस छाए२; भोज के मछनि लाज रही मुख औरनि लाज के भार नवाए ॥ २१५॥ राधा के दृग खेल में मूंदे नंद-कुमार। करन लगी दगकोर सो भई छदि उर पार ॥ २१६ ॥ द्वितीय असंगति-लक्षण और ठौर करनीय जो, करत और ही ठौर । बरनत सब कबिराज हैं, यही असंगति और ।। २१७ ॥ उदाहरण पिय नैननि के राग कौं भूषन सजे बनाय । लखें तिहारी छबि सुतौ सौति-दृगनि अधिकाय ॥ २१८ ॥ तृतीय असंगति-लक्षण करन लगै जो काज कछु ताते करै बिरुद्ध । यही असंगति कहत हैं कबि 'मतिराम' बिवुद्ध ॥ २१९ ॥ १ जमाए, २ गाए। ___ छं० नं० २१५. बंस के बाने बजाए वंश के अनुरूप वीरता नहीं दिखलाई। छं० नं० २१८ भूषण धारण करने का अभिप्राय था प्रियतम के नेत्रों का अनुरंजन, पर उससे सौतों की आँखों में क्रोध की ललाई. (राग) छा गई।
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