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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४०१

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३९७ ललितललाम परमुख अधिक अँधेरी करिबे कौं फैली, जस की उजेरी तेरी जग के पसार मैं। राव भावसिंह सत्रुसाल के सपूत यह, . अदभुत बात 'मतिराम' के बिचार मैं ; .. आय के मरत अरि चाहत अमर भयो, महाबीर तेरी खग्ग-धार गंगधार मैं ॥ २३५ ।। ___ • प्रथम अधिक-लक्षण जहाँ बड़े आधार से बरनत बढ़ि आधेय । कहत सुकबिजन अधिक तहँ जिनकी बुद्धि अजेय ॥२३६ ।। उदाहरण जिनके अतुल बिलोकिए, पानिप पारावार । उमड़ि चलत नित दृगनि भरि, तो मुखरूप अपार ॥ ३३७ ।। . द्वितीय अधिक-लक्षण जहाँ बड़े आधेय तें बरनत बढ़ि आधार । तहाँ अधिक औरौ कहत कबिजन बुद्धि अपार ।। २३८ ॥ _उदाहरण जाके कोस भीतर भवन करतार ऐसो, _जाके नभिकुंड मैं कमल बिकसत है ; कहै 'मतिराम' सब थावर जंगम जग, जाकी दिग्ध उदर-दरी में दरसत है। १ परसुख, २ अमेय । छं० नं० २३५ परमुख शत्रुमुख । परमुख अधिक अँधेरी शत्रुओं के मुख पर स्याही दौड़ जाती है अर्थात् वे निस्तेज हो जाते हैं। खग्ग- धार-खङ्गधार=तलवार की धार । छं० नं० २३९ दिग्ध उदर-दरी- दीर्घ उदर=भारी पेट ।