पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४००

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wee E- PACHRIR मतिराम-ग्रंथावली a padmavasthennaitiation pedonian तोते लहै 'मतिराम' महा छबि प्रानपियारे ते तू छबि पावै ; तो सजनी सबके मन भावै जु सोन'-से अंगनि लाल मिलावै ।। २२९॥ द्वितीय सम-लक्षण जहाँ हेतु ते काज को, बरनत उचित सरूप । बरनत तहँ सम औरऊ, जे कबि कोबिद भूप ।। २३०॥ उदाहरण करत लाल मनुहारि पै तू न लखति इहि ओर। . ऐसो उर जो कठोर तो उचितहि उरज कठोर ।। २३१॥* तृतीय सम-लक्षण ताकी सिद्धि अनिष्ट बिन, उद्यम जाके अर्थ । तासौं सम औरौ कहत, जे कबिराज समर्थ ।। २३२ ।। उदाहरण कोऊ नहीं बरजै ‘मतिराम' रहौ तित ही जित ही मन भायो; काहे को सौहैं हजार करो तुम तौ कबहूँ अपराध न ठायो । सोवन दीजै न दीजै महा दुख यौं ही कहा रसबाद बढ़ायो; मान रह्यौई नहीं मनमोहन मानिनी होय सो मानै मनायो । २३३ ॥ विचित्र-लक्षण जहाँ करत उद्यम कछ, फल चाहत बिपरीति । बरनत तहाँ बिचित्र कहि, जे कबित्त-रस-प्रीति ॥ २३४ ॥ उदाहरण औरनि के तेज सीरे करिबे के हेत आँच, करै तेज तेरो दिसि बिदिसि अपार मैं ; १ सोने, २ प्रानपियारो पग परचो, ३ है, ४ न्यायहि, ५ ढायो।

  • देखो रसराज उदाहरण बिब्वोक-हाव।

दे० रसराज उदाहरण मध्या अधीरा।