पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४२२

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४१८
मतिराम-ग्रंथावली

४१८ मतिराम-ग्रंथावली respermswamised सलदा सामान्य लक्षण भिन्न रूप हूँ मैं जहाँ पैए कछु न बिसेष । तहाँ कहत सामान्य हैं पंडित लोग असेष ॥३४३॥ उदाहरण सारी जरतारी की झलक झलकति तैसी केसरि' को अंगराग कीन्हौं सब तन मैं; तीछन तरनि की किरिनि तें दुगुन जोति जागति जवाहिर जटित आभरन मैं । कबि ‘मतिराम' आभा अंगनि अंगारनि की धूम कैसी धारा छबि छाजति कचन मैं; ग्रीषम दुपहरी मैं हरि कौं मिलन चली ... जानी जाति नारि ना दवारिजुत बन मैं ॥३४४॥* उन्मीलित-विशेष-लक्षण जहँ मीलित सामान्य मैं, पैयत भेद बिसेष । उन्मीलित सबिसेष कबि, बरनत मति उल्लेष ॥३४५॥ उन्मीलित-उदाहरण सरद चाँदनी मैं प्रगट होत न तिय के अंग। सुनत मंजु मंजीर धुनि सखी न छोड़ति संग ॥३४६।। विशेष-उदाहरण आई फलनि लैन कौं, चलो बाग मैं लाल । मदु बोलनि सौं जानिए, मद बेलिनि मैं बाल ॥३४७।। १ कुंकुम ।

  • देखो रसराज उदाहरण दिवाभिसारिका ।