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मतिराम-ग्रंथावली

४३८ मतिराम-ग्रंथावली कंटक काढ़त लाल की, चंचल चाह निवाहि । चरन बँचि लीनो तिया, हँसि झूठे करि आहि ॥७३॥ सुबरन बरन सुबास जुत, सरस दलनि सुकुमार। ऐसे चंपक कौं तज, ते ही भौंर' गँवार ॥७४॥* देखे हूँ बिन देखि हूँ, लगी रहै अति आस । कैसे हैं न बुझाति है, ज्यों सपने की प्यास ॥७५॥ सखिनि दियो उपदेस जो, नहिं कैसे हुँ ठहरात । नवल नेह चित चीकने, ढरकि तोय लों जात ॥७६।। सौहनि करि पाइनि परयो, तेरे रिसैं उदोति । नाह नेह तोमें लह्यो, तू कत रूखी होति ॥७७॥ भौंहनि संग चढ़ाइयो, कर गहि चाप मनोज । नाह नेह साथहि बढ्यो, लोचन लाज उरोज ॥७८॥ लई जु पीर जनाइ कै, करि मिलाप की आस । मन उड़ात अजहूँ रहै, ऊँची उहीं उसास ॥७९॥ नैन मिली मन हूँ मिली, बातनि मिली बनाइ। क्यों न मिलावति देह सों, नेह-रहचटो लाइ ॥८॥ लाज छ्टी गेह्यो छुटयो, सुख सों छटयो सनेह । सखि कहियौ' वा निठुर सों, रही छूटिबें देह ॥८१॥ १ चंपकली को तजत अलि तें ही होत, २ सबसों। छं० नं० ७६ सूर्य-जल जब स्निग्ध स्थल पर पड़ता है तो वहाँ से ढरक जाता है-वहाँ पर सूखता नहीं है-इसी प्रकार से नायिका को सखियों ने मान करने का जो उपदेश दिया है वह उसके स्नेहचिक्कण (प्रेम के कारण जिसकी रुखाई दूर कर दी गई है) चित्त पर प्रभाव नहीं कर पाता है।

  • दे० ललितललाम उ० प्रस्तुतांकुर ।

+दे० रसराज उ० परकीया प्रोषितपतिका ।