पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४३

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मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई दुरजन वे निंदित रहैं, गुरुजन गारी देत । सहियत बोल कुबोल ए, लाल तिहारे हेत ॥२॥ लगे लूत के जाल ए, लखो लसत इहि भौन । जानि कह-रजनी मनो, कियो नखत-गन गौन ॥३॥ मेरे तन के रोम ए, मेरे नहीं निदान। उठि आदर अगमन करै, करौं कौन बिधि मान ॥८४॥* अनमिख लोचन बाल के, यातें नंदकुमार। गई मीच परसत पजरि, बिरहानल की झार ॥८॥ जलद निकासी रैनि दिन, रहै नैन झर लागि । बाढ़ति जाति बियोग की, बिद्युत की-सी आगि ॥८६॥ मौर नूत नूतन रहै, देखि धरै क्यों धीर । मनो मनोज महीप के, तीरन भरे तुनीर ॥८७॥ दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ। अंचल ओट किए तऊ, चली नबेली जाइ ॥८॥ ऐसे बोलो बोल बलि, जैसे याहि सुहात । बेलि नबेली कनक की, झुकति तनक ही बात ॥८९॥ सारी लटकति पाट की, बिलसति फंदी लिलार। मनो रूप-मंदिर बँधे, संदर बंदनवार ॥९॥ पति आयो परदेस तें, हिय हुलसी अति बाम । टूक-टूक कंचुक कियौ, करि कमनैती काम ॥९१॥ १ मीच गई जरि बीच ही। छं० नं० ८८ भावार्थ-यद्यपि हवा के झोंके से दीपक बुझ गया है फिर भी नवेली के शरीर की कांति से प्रकाश बना है, नायिका उस मर्म को न जानकर बुझे हुए दीपक को आँचल में छिपाए लिए जा रही है मानो वह जलता है। छं० नं० ८९ बात= १ बातचीत, २ वायु ।

  • दे० रसराज उ० मध्यमा नायिका । दे० रसराज उ० जड़ता।

दे० रसराज उ० आगतपतिका ।