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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४४

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४४०
मतिराम-ग्रंथावली

४४० मतिराम-ग्रंथावली AAR लाल तिहारे नैन सर, अचिरज करत अचूक । बिन कंचुक छेदैं करै, छाती छेद छटूक ॥९२॥ पिय के दरपन में निरखि, प्रतिबिंबित निज रूप । बाल लाल मुख लखि भई, रिस भरि भौंह अनूप ॥९३।। और बाल कहियै कहा, सुनियै नंदकुमार। बिरह आँच साँचे भए, याके अंग अँगार ॥९४॥ ललित लाइ की लपट-सी, चली जाति जहँ नारि । विरह-अगिनि की झार तहँ, जारि जात झोंकारि ॥९५।। जहाँ तहाँ रितुराज में, फूले किंसुक-जाल । मानहु मान मतंग के, अंकुस-लोहू लाल ॥९६।। बितें सिसिर रितु रजनि के, मधुर प्रताप सुबैन । जाग्यो मैन महीप सूनि, पिक बंदिनि के बैन ॥९७।। होत दसगुनो अंकु है, दियें एक ज्यों बिंदु । दियें डिठोना यों बढ़ी, आनन आभा इंदु ॥९८॥ तू सोने की सटक है, रही और गुन पागि । बिन लागें पीरहि करै, रहै पीर उर लागि ।।९९।। मान जनावति सबनि कों, मन न मान को ठाट । बाल मनावन को लखै, लाल तिहारी बाट ॥१००॥* नखतावलि नख, इंदु मुख, तनु दुति दीप अनूप । होति निसा नँदलाल मन, लखे तिहारो रूप ॥१०१॥ इतै उतै सचकित चितै, चल' डुलावति बाँह । डीठि बचाइ सखीनि की,छिन इक निरखति छाँह ॥१०२॥ . १ चलत, २ दीठि, ३ छनकु निहारति ।

  • दे० रसराज उ० लघुमान ।

+दे. रसराज उ० ज्ञातयौवना ।