पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४४२
मतिराम-ग्रंथावली

6852 S S ४४२ मतिराम-ग्रंथाबली ARDHINDIAN ARIUSatisteres Hal तेरी मुख छबि लखि लखै, होत चंद ता तूल । कंद खाइ के चुसियै, ज्यों रूसे को फूल ॥११३॥ निज नीचे कों निरखि नित, ऊँचे होत उरोज । यातें मुख के होत हैं, नीचे नैन-सरोज ॥११४॥ ज्यों-ज्यों ऊँचे होत हैं, उरज बाल के ऐन । सब सौतिनि के होत हैं, त्यों-त्यों नीचे नैन ॥११॥ जब-जब चढ़ति अटानि दिन, चंदमुखी यह बाम । तब-तब घर-घर धरत हैं, दीप बार सब गाम ॥११६॥ छुवत परस्पर हेर के, राधा नंदकिसोर । सबमें वेई होत हैं, चोर-मिहचनी चोर ॥११७॥* खंजन, कमल, चकोर, अलि, जिते मीन, मृग ऐन । क्यों न बड़ाई को लहैं, तरुनि तिहारे नैन ॥११८॥ अँसुवा बरुनी है चलत, जल चादर के रूप । अमल कपोलनि की झलक, झलकति दीप अनूप ॥११९॥ कुच ते स्रम जलधार चलि, मिली रुमावलि रंग। मनो मेरु के तरहटी, भयो सितासित संग ॥१२०॥ सरदागम पिय-आगमन, जगी जोति मुख-इंदु । अंग अमल पानिप भयो, फूले दृग अरबिंदु ॥१२१॥ मो मन सुक लों उड़ि गयौ, अब क्यों हूँ न पत्याइ। बसि मोहन बनमाल में, रह्यो' बनाउ बनाइ ॥१२२॥X १ कह्यो। छं० नं० ११६ भावार्थ-इसके छत पर चढ़ने से ऐसा जान पड़ता है मानो चंद्रमा निकला है। इससे लोगों को भ्रम होता है कि रात हो गई और वे दीपक जलाने लगते हैं। छ० नं० ११८ ऐन एणी, हरिणी। दे० रसराज उ० संयोग-सिंगार । दे० रसराज उ० स्वेद । दे० रसराज उ० मध्यमा आगतपतिका। x दे० रसराज उ० अभिलाष। TOS 5-OETIDASE Santoscsitpasscopiconsistant.ne deatNES