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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४४७

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मतिराम-सतसई

मतिराम-सतसई बेंदी ललति मसूर की, लसति सलौने भाल । मनो इंदू के अंक में, इंदु-कामिनी लाल ॥१२३॥ फिरि-फिरि आवति द्वार तें,झूठे झुकि अलसाति । लेति आगि तितनी बहू, जो बीचहीं बुझाति ॥१२४॥ अमल कपोलनि में अरुन, झलकनि पीक अनूप । उठी मनो रबि-किरन सों, आगि लपट के रूप ।।१२५॥ बार-बार वा गेह सों, बारि-बारि लै जाति । काहे तें बिन बात ही, बाती आजु बुझाति ॥१२६॥ नीठि-नीठि आगें परै, पैग परयो जनु फंद । को न होति गति मंद है, लखि तेरी गति मंद ॥१२७।। नैन जोरि मुख मोरि हँसि, नैसुक नेह जनाइ। आगि लैन आई हियें, मेरे गई लगाइ ॥१२८॥* सुबरन बेलि तमाल सों, घन सों दामिनि देह । तूं राजति घनस्याम सों, राधे सरस सनेह ।।१२९॥ है साँचो कैधों भयो, मेरीई मति-भंग। आजु बदलि काहे गयो, बदलि बसन तन रंग ॥१३०॥ सूरत अंत सुख अमित है, भोर भए निसि जागि। उर सोई लागी अज्यों, जो उर सोई लागि ॥१३१।। दूनी मुख में छबि भई, बेसरि धरी उतारि। हरि के उर सोई लगी, करति रसोई नारि ।।१३२॥ जब तें मिलि बरुनीनि सों, अच्छिन की छवि अच्छ। जनु अवनीप अनंग के, तरल तुरंग सपच्छ ॥१३३।। Idnigame छं० नं० १२७ को मंद तेरी मंद चाल देखकर किसकी चाल धीमी नहीं पड़ जाती है। छं० नं० १३३ अच्छिन=आँखें । बरुणी समेत आँखें। सपक्ष घोड़े के समान चंचल हैं।

  • दे० रसराज उ० उपपति ।

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