हैं कि नायक-नायिका में समान आकर्षण एवं समता का भाव रहता है। परस्पर एक दूसरे पर न्योछार हो जाते हैं। तन्मयता पराकाष्ठा को पहुँच जाती है। द्वैतभाव का लोप हो जाता है। इस रस का उद्दीपन विभाव और भी विशिष्ट है। देवी और मानुषी, दोनो ही प्रकार के उद्दीपनों से इसका कलेवर भूषित है। इसके उद्दीपन सर्वत्र और सब काल में पाए जाते हैं। वे मेध्य हैं, और सुंदरता में सर्वोपरि हैं। इस रस में संचारी भाव भी अन्य सभी रसों से बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। सात्त्विक भाव और हाव का यदि विचार भी न करें, तो भी अनुभावों का आधिक्य भी इसी रस के भाव में पड़ता है। अन्य सब रस किसी-न-किसी अवस्था में इसके साथ वर्णित हो सकते हैं। इन्हीं सब बातों पर विचार करके पहले के आचार्यों ने श्रृंगार को 'रसराज' की पदवी से विभूषित किया है। शेष आठ रसों में से अन्य किसी में भी यह योग्यता नहीं कि श्रृंगार में पाई जानेवाली विशेषताओं का अद्धश भी अपने में प्रदर्शित कर सके। असल बात तो यह है कि इसका स्थायी भाव 'प्रेम' इतना महान् है कि अन्य रसों के स्थायी भाव उसके निकट भी नहीं पहुँच सकते। तन्मयता, मृदुलता, स्वाथनिलय, द्वैतभाव-शून्यता, संग्राहकत्व, विधेयात्मिकता तथा संसार-सृष्टि-रक्षा के जो दिव्यतम भाव प्रेम में मौजूद हैं, वे अन्यत्र कहाँ पाए जा सकते हैं? हमारी राय में तो अकेले प्रेम का स्थायी भाव होना ही श्रृंगार रस को निर्विवाद रसराज पद पर अभिषिक्त करने को समर्थ है। फिर यहाँ तो और बातें भी दिखलाई गई हैं। यह वही प्रेम है, जिसका लक्षण भवभूति ने यह दिया है—
अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगुणं सर्वास्ववस्थासु यद्
विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः;
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं
भद्रं प्रेमसु मानुषस्य कथमप्येकं हि तत्प्राप्यते।