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पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४५५

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lance मतिराम-सतसई ४५१ कामिनि दामिनि दमक-सी, बरनि कौन पै जाइ । डीठि नहीं ठहराइयै, डीठिन ही ठहराइ ॥२०५।। रात्यौ दिन जागति रहै, अगिनि लगनि की मोहिं। . मो हिय में तू बसतु है, आँच न पहुँचति तोहिं ॥२०६।। चलन लगी अँखिया चपल, चलन लगी लखि छाँह । तन जोबन आवन लग्यो, मनभावन मन माँह ।।२०७॥ बिन देखें दुख के चलें, देखें सुख के जाहि । कहो लाल उन दृगनि के, अँसुवा क्यों ठहराहि ॥२०८।। बरसाइति में सखिनि हठि, साजे अंग-सिँगार । पछिले कंचन आभरन, लगनि अगिनि की झार ॥२०९।।* डारि तिहारे नेह में, अगनि लगनि की मैन । तलफति याके मानि सें, लाल सलोने नैन ॥२१०।। कौन बसत है कौन मैं, यों कछु कही पैर न । पिय नैननि तिय नैन हैं, तिय नैननि पिय नैन ॥२११॥ लाल बाल को उर कठिन, उरजनि निपट कठोर । ताहि छेदि तीछन गई, तेरी ईछन कोर ॥२१२॥ बाल निहाल भई लैखै', ललित लाल' मुख इंदु। मनु पियूष बरषा भई, नैननि झलके बिंदु ॥२१३॥ तिय हिय लों पहुँचे कहीं, सीखि सखिनि की बात । बिरह आँच जरि जाति है, स्रौन समीपहिं जात ॥२१४॥ । ja १ रही इकटक निरखि, २ लाल बदन अरबिंदु, रीझ मार अँखियाँ थकी झलके स्रम-जल-बिंदु। छं० नं० २१२ ईछन =आँख ।

  • दे० रसराज उ० अश्रु ।

दे० रसराज उ० वैवर्ण्य तथा ललितललाम उ० गुप्तोत्प्रेक्षा ।