GAON SHArtesungala । SARA Y ४५२ came Pratinikai SONUPANISAR COME THIS मतिराम-ग्रंथावली भुज' फुलेल लावत सखी, कर चलाइ मुसिक्याइ । गाढ़ें गह्यो उरोज तिय', बिहँसी भौंह चढ़ाइ ॥२१५॥ इंद्रजाल कंदर्प को, कहै कहा मतिराम । आगि लपट बरषा करै, ताप धरै घनस्याम ॥२१६॥ दुहूँ अटारिनि मैं सखी, लखी अपूरब बात । उतै इंदु मुरझातु है, इतै कंज कुम्हिलात ॥२१७।। जोबन मैं अँखिया सखी, परी लाज' की जेल । लरिकाई के सौंरियत, चोरमिहचनी खेल ॥२१॥ राधिकर के दृग खेल में, मूंदे नंदकुमार । करनि लगी दृग कोर सों, भई छेद उर पार ॥२१९॥ मैं मूंदति हों खेल में, तेरे लोचन बाल । मेरे कर अति प्यार सों, चमत हैं नंदलाल ॥२२०॥ सुरभि लोभ जुत अलिनि में, सहत अधर को रंग। मनो तरनि-तनया मिली, बानी गंग-तरंग ॥२२१॥ सेत बसन में यों लगै, उघरत गोरे गात । उडै आगि ऊपर लगी, ज्यों बिभूति अवदात ॥२२२॥ १ पिय, २ राधा। छं० नं० २१८ सौंरियत स्मरण करती है। छं० नं० २२२ जलते हुए कोयले पर सफ़ेद राख का पर्त पड़ जाता है। थोड़ी हवा लगते ही वह राख उड़ जाती है और नीचे से फिर लाल कोयला निकल आता है। ऐसे ही कोयले को देखकर मतिराम को यह उक्ति सूझी कि सफ़ेद साड़ी पहने गौरांगी नायिका विभूति (राख)-विभूषित अग्नि के समान है। हवा में कपड़ा हटने से उसका भी तप्त कांचन के समान शरीर वैसा ही झलकने लगता है जैसा उस कोयले का जिसके ऊपर की विभूति हट गई हो । यह नया भाव है। हिंदी के और कवियों की रचना में यह भाव नहीं देख पड़ता है। दे० ललितललाम । दे० ललितललाम उ० असंगति । S
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