पृष्ठ:मतिराम-ग्रंथावली.djvu/४५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

whoslee ४५५ मतिराम-सतसई बेनी [दत' एक की, नंदलाल चित लोल । चमत प्यारी बालरे के, बिहसत गोल कपोल ॥२४५।।* मन-भावन सों ब्याह की, सुनी सलोनी बात। अँगिया में न उरोज अरु, आनंद उर न समात ॥२४६॥ लखि जैहैं ब्रज गाँउ की, सबै चतुर हैं बाल । छतिया नख छतदोह जिन, छैल छबीले लाल २४७।। भलो न केतक रूख यह, सजनी गेह अराम । बसन फट कंटक लगैं, निसि-दिन आठो जाम ॥२४८॥ जपे द्वार में बसत तौ, पथिक जाइ जिन सोइ। मेरो घर सूनो इहाँ, चोरनि को डर होइ ॥२४९।। ग्रीषम रितु में देखि के, बन में लगी दँवारि । बड़ी अपूरब बात है, मन में जरति गँवारि ॥२५०॥x जरद भई तिय हरद रंग, बाढ़े दरद अतूल । लागे बीतन संग ही, कुसम-फूल, हिय-फूल ॥२५१॥ छरी सपल्लव लाल कर, लखि तमाल की बाल । मुरझानी हिय साल धरि, फल-माल-सी हाल ॥२५२।।+ लसति गूजरी ऊजरी, बिलसति लाल इजार। हिए हजारनि के हरे, बैठी बाल बजार ॥२५३।।= १ गूंधत, २ के अधर, ३ ऑगी में, ४ भलो नहीं यह केबरो, - Marwar -

+- ५ हाल, ६ बाल । छं० नं० २५१ जरद भई-पीली पड़ गई ।

  • दे० रसराज उ० ज्येष्ठा कनिष्ठा।

दे० ललितललाम उ० प्रहर्षण ।

  • दे० रसराज उ० सुरतगुप्ता।

x दे० रसराज उ० नष्टसंकेत अनुसयना । +दे० रसराज उ० अनुसयना। =दे० रसराज उ० गणिका । ++ X +