४५४ मतिराम-ग्रंथावली पियराई तन मैं परी, पानिप रह्यो न देह । राख्यौ नंदकुँवार ने, करि कुँवार को मेह ॥२३५।। बाँधी दग डोरानि सों, घेरी बरुनि समाज । गई तऊ नैनानि तें, निकसि नटी-सी लाज ॥२३६॥ लोक-लाज कुलकानि सों, गरब करो जिन बीर । ऐन मैन ब्रजराज के, नैन मैन के तीर ॥२३७।। क्यों न फिरै सब जगत में, करत दिगबिजै मार । जाके दृग सावंत सर', कुबलय जीतनवार ॥२३८॥ नेह छुटे हूँ रावरो, यातें जीवति बाल । चलत सहज हूँ गलिनि में,तुमहिं बिलोकति लाल ॥२३९।। केलि-भौन के देहरी, करी बाल छबि नौल । काम कलित हिय को लहै,लाज ललित दग कौल ॥२४०।।* नित उठि ऐसे रूप सों, आवत हो ब्रजराज । सो तुम सों पिय रिस करै, ताके हिए न लाज ॥२४१॥ तुम सों कीजै मान क्यों, ब्रजनायक मन रंज । बात कहत यों बाल के, भरि आए दग कंज ।।२४२॥ ढीली बाहनि सों मिली, बोली कछु न बोल । सुंदरि मान जनाइयौ , लियौ प्रानपति मोल ॥२४३॥x आवत उठि आदर कियो, बोले बोल रसाल । बॉह गहत नंदलाल के, भए बाल उग लाल ॥२४४॥+ १ हैं, २ हार, ३ खरी, ४ कलित, बहुनायक, ६ जनाइकै । छं० नं० २३५. शरद् ऋतु के बादलों में जल कम रहता है।
- दे० ललितललाम उ० परिकर ।
+दे० रसराज उ० मध्या । दे० रसराज उ० मध्या धीराधीरा । x दे० रसराज उ० प्रौढ़ा धीरा। +दे० रसराज उ० प्रौढ़ा धीराधीरा। Home